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शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

काश! की तुम मिलने आती

कोहरे की पहरेदारी थी
काश की तुम मिलने आती,
सर्द रातों की दुश्वारी थी
काश की तुम समझ पाती,
भेज ही देती किसी तरह
यादों का गर्म बिछौना तुम,
प्रेम पाश के कम्बल को
ओढ़ा दी होती मुझपर तुम,
दिन चमकना भूल गया है
क्या इसकी भी साझेदारी थी,
काश की तुम मिलने आती
फिर कोहरे की पहरेदारी थी,
____इस बेरहम कड़कती सर्दियों से खुदा जहाँ को बचाये,
  ( पंक्तियाँ :― अश्विनी यादव )

सोमवार, 28 नवंबर 2016

आप तो उनसे भी आगे हो

"___खुद को सेवक और चौकीदारी कहने वाले एक कद्दावर नेता और उसके लगभग अंधे हो चुके समर्थकों को समर्पित ये पंक्तियाँ___,,
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जनता भूखी थकी हुई और चहुं ओर हाहाकार है,
पगले भक्त चिल्ला रहे है की बागों में बहार है,
उन्हें जान के लाले पड गये जो हमारे जिम्मेदार है,
देश का मुंह बंद करो कह रहा फट्टू चौकीदार है,
सलीमा देखाई में नोट चले पर खा नही सकते है,
वो लाइन में खाए धक्के जो आ जा नही सकते है,
बुढ़िया रोये अपाहिज रोये भारत देश परेशान हुआ,
आधी रात मे तेरे नाटक से जन मानस हैरान हुआ,
ये जान लो जिस कारण से तुम्हे सरताज बनाया था,
कैसे उनको गर्त में फेंक तुम्हें सत्ताधीश बनाया था,
पर क्या कहें की तुमने उनको काफ़ी पीछे छोड़ दिया,
तानाशाही और घुमाई कर हम से नाता तोड़ दिया,
रोटी छीना, थाली छीना, मुँह में नोटिस ठूस दिया,
चादर छीन लिया हमसे बदले में ठिठुरती पूस दिया,
सुन ओ सनकी राजा अधिकारों का हनन किया तुमने,
आपातकाल स्थिति पैदा कर हमे शर्मसार किया तुमने,
तुमको लाया भूल हुई तुम गला दबाने पे तुल गये हो,
तुम मदमस्त हाथी से सत्ता नशे में सब भूल गये हो,
है कसम इस बार तुम्हें जनता औकात दिखा देगी,
जैसे तुमको बिठाया था वैसे ही तुमको गिरा देगी,
नोट बंदी सही किया पर तरीका जनहित में न था,
तुम्हें गरीबी समझ होगी सोच लेना उचित न था,
साहब तुमने तो कुर्सी को अमीरों की रखैल बना डाली,
हम जनता खुद का ध्यान रखे जेटली जी ने कह डाली,
अब बताओ तुम रोज गरीबी-किसानी पेले रहते हो,
जहाँ देखो तुम भारत निर्माण की डींगे रेले रहते हो,
जितना तुमने प्रचारों पर खर्च कराया कामों का,
इतने के न काम हुए है लुटाया जितने दामों का,
अब तो वक्त निकल चुका कुर्सी छोड़ने की बारी है,
जन मानस बेहाल हुआ सबक सिखाने की तैयारी है,
जनता भूखी थकी हुई और चहुं ओर हाहाकार है,
पगले भक्त चिल्ला रहे है की बागों में बहार है,
___आज दुर्दशा सिर्फ नासमझी के कारण हुई, क्युकी उन्हें तो अमीरों के बीच में रहने की आदत है..तब गरीबों की बातें तो पन्नों में लिखी हुई आती है फिर मंच से आप चित्रित कर देते हो सब.....अब भला करे भगवान हमारा____
           
         "पंक्तियाँ :-  अश्विनी यादव"

गुरुवार, 15 सितंबर 2016

याद करोगे जब हमें

करोगे याद जब हमको न आंसू रोक पाओगे,
मेरी बातों में खोने से न खुद को रोक पाओगे,
बड़ी तालीम ली होगी जमाने को सिखाने के लिए,
जमाना सवाल करेगा न किसी को टोक पाओगे,,,
कभी बिस्तर पे सिमटोगे कभी झरोखे पे आओगे,
कभी ख्वाबो में डूब के भूलकर मुझे बुलाओगे,
इक़ मेरी चाहत में कितनो को लिखना सिखाया,
तुमसे मोहब्बत न सम्हली अब नजर कैसे मिलाओगे,,,,
वो घरौंदे, वो पत्थर हमारे नाम के जब दिखाई देंगे,
दिल बोझिल हो जायेगा मेरे बोल सुनाई देंगें,
हम घुट घुट कर मर रहें कतरों में बिखर जायेंगें,
तुम ही जानो हाल तुम्हारा की कैसे जी पाओगे,
करोगे याद जब हमको न आंसू रोक पाओगे,......
     ―अश्विनी यादव

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

तुम होती तो ऐसा होता

बडा गुमनाम हो गया हूँ बिछड़ कर तुमसे,
हर सुबह का मंजर क्या कहूँ कैसा होता,
शाम सुहानी हो जाती तेरा साथ पाकर के,
तुम होती तो ऐसा होता क्या कहूँ कैसा होता,//

ठंडी आने वाली होती जब जब भी,
तुम्हारे हाथ में ऊन का गोला होता,
हम चाय की चुस्की लेते पास बैठ के,
बगल में गर्म अलाव का शोला होता,
हम टहलते कोहरे में बातें करते करते,
हर लम्हा क्या कहूँ की कैसा होता,
सर्दियाँ इंतजार करवाती हमसे,
तुम होती तो ऐसा होता-वैसा होता,//

गर्मी के दिनों हम छत पर होते,
मै चाँद निहारता तो तुम्हे तराशता,
हाथ-हाथ ले और तुम्हारी बातों में,
मै खोता जाता और तुमको पाता,
भरी दोपहरी में तुम लस्सी बनाती,
तरबूज काटते क्या सोचूं कैसा होता,
धूप में छाँव चहूँ ओर हरियाली होती,
तुम होती तो ऐसा होता-वैसा होता,//

बारिशों में तुम्हारे हाथ के पकौड़े,
तीखी चटनी और करारी काफ़ी होती,
उस रिमझिम में भीगते खेल खेल में,
जरा मै सम्हलता तुम बहकती होती,
न जाने कब में दोनों को सर्दी होती,
काढ़ा बनाते क्या जानू कि कैसा होता,
बड़ी तसल्ली से रूह तक भिगो देता,
तुम होती तो ऐसा होता-वैसा होता,//

पतझड़ में बिखरी पत्तियाँ तुम्हारा,
इंतजार करती कुछ बेकरार होती,
पैरों से लिपटने आस-पास उड़ने को,
शाखों से भी वो तकरार कर लेती,
बागों का सरीखा मौसम ऐसा होता,
तुम होती तो ऐसा होता-वैसा होता,//

         ― अश्विनी यादव

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

पालनहार कन्हैया

तुझ सांवले-सलोने ने,
सबको मोह डाला,
तेरी प्यारी सी सूरत पे,
मन हुआ निराला,
यशोदा माँ छिपाती थी,
नजर न लग जाये,
माँ देवकी अभिलाषी थी,
दरश एक मिल जाये,
तूने नटखट तराजू से,
सबको जोह डाला,
तुझ सांवले-सलोने ने,
सबको मोह डाला.....||

गजब के जादूगर थे,
रोज अजब करते थे तुम,
मुँह में जगत, चरणे भगत,
चहुं ओर रजत करते थे तुम,
कभी पूतना, कभी सारस,
दुष्ट अजगर का नाश किया,
खेल-खेल में तुमने कान्हा,
कालिया फन पे नाच किया,
कनिष्ठा पे गोवर्धन ले,
गोकुल का उद्धार किया,
अहंकारी दुष्ट कंस का,
पल भर में संहार किया,
जन्म नही कर्म प्रधान है,
ऐसी तलब रखते थे तुम,
गजब के जादूगर थे,
रोज अजब करते थे तुम....||

कान्हा तुम हर युग में,
प्रेम की परिभाषा हो,
राधा के पूरक हो,
मीरा की अभिलाषा हो,
पति हुए रुक्मिणी के पर,
18 हजारों को नाम दिया,
नरक से निकाल भक्तो को,
पालनहार ने जीवनदान दिया,
नंगे पाँव, भरी आँख ले दौड़े,
सखा को गले लगा लिया,
फटे वस्त्र युक्त सुदामा को,
गद्दी पे बिठा सम्मान दिया,
नयनन नीर से पग धोकर,
निज पट-पीत से पोंछ दिया,
तुमने चावल खा दिया लोक,
ऐसे अनंत जिज्ञासा हो,
कान्हा तुम हर युग में,
प्रेम की परिभाषा हो....||

एक तरफ थे पाँच खड़े,
एक ओर सौ सेना थी,
तुम सत्य के सारथी थे,
तब अच्छाई ने सामना की,
पांडवों को ज्ञान दिए,
जब सर्वज्ञाता कृष्णा ने,
कौरवों का नाश हुआ,
राजीतिज्ञ कहा तुमको सबने,
प्रभु मेरे और ब्रम्हाण्ड के,
तुम हो पालनहार कन्हैया,
कलयुग में भी हम भक्तों का,
आओ करो उद्धार कन्हैया,
पिता, प्रेमी, सखा, गुरु,
तुम हो खेवनहार कन्हैया,
जन्म लिया था भारत भूमि पे,
फिर करो उपकार कन्हैया,
कृपा करो सम्पूर्ण विश्व पे,
प्रेम से जग तर कर दो,
यदुकुल में जन्मा मुझ अश्विनी पे,
नजर कर नाम अमर कर दो...||

जय हो जय हो नन्दलाल की
जय हो मुरलिया वाले की
    
     ©―अश्विनी यादव

रविवार, 14 अगस्त 2016

सर्वस्व तिरंगा हो

सरहद पर रहूँ चाहे ये देश का दंगा हो,
मरते दम तक मेरे हाँथों में तिरंगा हो ।।

तैयार रहूँगा सदा हर कुर्बानी के लिए,
हर गद्दार मेरा दुश्मन चाहे कीट-पतंगा हो ।।

सरहद पे रहूँ..........हांथों में तिरंगा हो ।।

देश पर शहीद हुआ तो है शान की बात,
न बँगले की ख्वाहिश न स्वर्ग की है चाहत।।

सब समर्पण कर दूँगा रिश्ते-नाते घर-बार,
काट भी देंगे दुश्मन को जब बात-बतंगा हो ।।

सरहद पे रहूँ.........हांथो में तिरंगा हो ।।

रहमदिली के कारण हमे जो आँख दिखाते है,
वो जान ले हिमालय को हम बाप बुलाते है ।।

अड़े रहेंगे तेरे आगे सीना यूँ फौलाद करके,
जाँ दे देंगे जब बात माता धरती या गंगा हो ।।

सरहद पर रहूँ.......हांथों में तिरंगा हो ।।

होंठों पे हंसी भी हो और हांथो में तिरंगा हो,
जब जाँ निकल जाये तो सीने पे तिरंगा हो ।।

बस 'अश्विनी' चाहता है न खुशियों में अड़ंगा हो,
हर दिल में 'जय हिन्द' हो सांसो में तिरंगा हो ।।

सरहद पे रहूँ.........हांथो में तिरंगा हो ।।

जय जवान जय किसान जय जय हिंदुस्तान

          ―अश्विनी यादव

          (१५ अगस्त २०१६)

आज का हमारा हिंदुस्तान

हमारा―
नया दिन, नया वर्ष,
नयी उमंग, नया हर्ष,
नया मौसम, नया जीवन,
नया सूरज, नयी किरण,
नये सुर, नयी तान,
जिस क्षण मिला हिंदुस्तान ।।

हम अम्बर पे है चाँद छू लिए,
नयी पंख नये उड़ान चुन लिए,
हौसला हर दिन दो गुना बढ़ा है,
सूर्य हिन्द का बहुत खूब चढ़ा है,
लेकिन दर्द झलकता है नन्ही आँखों से,
मजदूरी मजबूरी बनी है नन्हे हांथो के,
अब 70 बाद आवाज उठाना जरूरी है,
इन्हें कलम दो यही भविष्य की तिजोरी है,
"जय हिंदुस्तान जय जवान जय किसान"
     ―अश्विनी यादव

शनिवार, 6 अगस्त 2016

तुम आओगे

हमे तडपता छोड़ गये तुम वादा था आओगे,
मुझ अधूरे को पूरा करने का वचन निभाओगे,
रुदन करूं क्या नयन सूख गये प्रियतम मेरे,
राह तकूँ की बस तुम आओगे गले लगाओगे,
गोपियों ने छोड़ी दी पर मेरी तब आस छूटेगी,
जब आखें बंद होगी और आखिरी साँस टूटेगी,
सारे जहाँ ने कह दिया मुझसे तुम न आओगे,
मुझ व्याकुल धरा पे प्रेम मेघ न बरसाओगे,
दिल बार बार ये कहता है मुझसे आज भी,
कान्हा तुम आओगे वहीं प्रेम धुन सुनाओगे,
      
                ―अश्विनी यादव

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

तुम बिन

मारो कोई बिष बाण प्रिये,
अब ले लो मेरे प्राण प्रिये,
तुम नही रही मेरी बनके,
कुसुमालय हुए कृपाण प्रिये,
की अब ले लो मेरे प्राण प्रिये।।

सुमरुं प्रेम नित नये गीत से,
दरश जो पाऊँ अपने मीत के,
बलिहारी करूं ज्यों रसिक बना,
कनक हुआ इस इश्क रीति से ।।

    © अश्विनी यादव

शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

मतलब के पुजारी


चलो इस बार फिर से कोई मुद्दा ही छेड़ते है,
खाली थे बैठे कब से कुछ जहर ही बोलते है,
खुश है मेरी ये गलियाँ सूनी नही पड़ी है,
दो-चार घर पे छिप के पत्थर ही फेंकते है,
चलो इस बार फिर....
नुक्कड़ वाले मियाँ जी बड़े मौज गा रहे है,
दो वक्त वाली रोटी कैसे वो खा रहे है,
इस कदर के मौसम में मेरी आन न पड़ी है,
सो लेके हम दिया फिर लूकी लगा रहे है,
चलो इस बार फिर......
वो अपने मकसद खातिर जय राम बोलते है,
खुदा नाम पे तमाशे को इश्लाम बोलते है,
कुछ तेरी कौम वाले कुछ मेरे धर्म वाले,
मतलबपरस्ती में अब इन्सान तौलते है..,
चलो इस बार फिर से....
न खुदा जानते है न राम से मिले है,
ये कुर्सी और शोहरत इस काम से मिले है,
शहर के लोगो को गर सच कभी बताता,
ये राज कैसे करते जो आराम से मिले है,,

  सर्वाधिकार सुरक्षित ―अश्विनी यादव

बुधवार, 13 जुलाई 2016

इन्सान जिन्दा है

"सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा बहुत बार सुना हमने..लेकिन घाटी में ही इंसानियत के , देश के , मजहब के दो रंगो में देखा हमने...
कुछ पंक्तियाँ...
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लाख सूर्य अस्त हो जाये तो
हम चिराग जलाते रहेंगे,
अपने घर के दरवाजे पे
हिदुस्तानी लिखवाते रहेंगे,
सीख दी औलादो को यही
पत्थर, हांथो में उठाना नही,
केसर की क्यारी है हमारी
इस पर सवाल उठाना नही,
क्या मियां क्या हिन्दू भाई
सौहार्द बनाये रखना तुम,
सेना सलामी तिरंगा कहानी
लाल न कभी बिसरना तुम,
हिन्दू, हिंदी, हिन्द धरा की
माने-अलख जलाना तुम,
कभी दहशतगर्दी में पड़कर
'आतंकी' न बन जाना तुम,
हम सभी है वतन के सिपाही
सरहदे धूमिल होने न देंगे,
बुरहान, अफजल भले थे हमारे
अब कोई जाकिर होने न देंगें....!

          ©  अश्विनी यादव

मंगलवार, 31 मई 2016

अनमोल बचपन

    
धूल में खेलकर घर आना
फिर छिपते-छिपाते अंदर जाना
माँ के प्यार की थपकी मार
सब अक्सर याद आया करता है
चंचल चितवन मन हो जाता
जब 'बचपन' याद आया करता है।
साईकिल के पुराने टायर ले
चल पडे हम सैर सपाटे पे
नजर ज्यों ही सबकी पडे हमपे
पहिया छिन जाता था हाथों से ,
इस खेल के चक्कर में मै
अक्सर पीटा जाया करता था
आखें नम हो जाती है मेरी
जब बचपन याद करता है, ।
करें बहाना बगिया जायें
बगिया से फिर नदिया जायें
सब लँगोटिया यारो के संग
धमाचौकड़ी खूब मचायें,
वो सौंधी सी मिट्टी की महक
जिसमे पूरा दिन बीता करता था
अमिट छाप देता जीवन को
जो आँखे छलकाया करता है
लगे कि कल का दिन था वो
जब बचपन याद आया करता है।
टप-टप की आवाज जो आई
तब फटे किताबों के पन्ने
घर से बाहर भागे भीगने
और अपनी नाँव तैराने को
नन्हें हाथों ने थाम्हे छन्ने
आँगन में मछली पकड़ने को,
चहचहाता खेलता कूदता
बेफिकर सा वो शरारतपन
काश! कि लौट सकता फिर
वो प्यारा जीवन मेरा "बचपन"।।
     
    कवि :- अश्विनी यादव
आज बाल दिवस के शुभावसर पर समस्त पाठकों को हार्दिक शुभकामनाएं।

गुरुवार, 26 मई 2016

तेरी-मेरी कहानी

नाम तेरा हम लिखते मिटाते रहे
तुझे झरोखों से देख मुस्कुराते रहे
चर्चा कालेज में थी हूँ मै आशिक तेरा
वो भाभी है तेरी हम समझाते रहे
एक तेरे चक्कर में कितने लफड़े हुए
अपने हमयार भी नजरे चुराने लगे
बस तुझे छोड़ सबको थी ये खबर
क्यूँ तेरे नाम पे लुटने-लुटाने लगे
यूँ दिलकशी में पढाई चौपट हो रही
ध्यान तेरे सिवा और कुछ भी न था
कह न पाया कभी तुमसे दिल की बात
और तुम हँसकर सबसे बतियाते रहे
मै आंवारा न होऊ सो शहर आ गया
पूरा शहर परियो की बगिया लगी
भूलने लगा तुम्हे तितलियों में रहकर
जिम्मेदारी पढाई की बढने लगी
बीच में जब भी घर आना हुआ
तुम हमे देखकर शरमाने लगे
एक साल न गुजरे तेरी शादी हो गई
आज अफसर हो हम भी कमाने लगे
फिर भी अफ़सोस है उस अधूरेपन का
जिसे ख़यालों में हम गुनगुनाते रहे
मेरे यारों को उनकी वो भाभी न मिली
जिन्हें हम "जान" कहके बुलाते रहे...

कवि- अश्विनी यादव

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

ये कयामत क्यूँ

एक बूँद की चाहत में तरसता रहा
शायद अंत है निकट अब लग रहा
सूखा है गला न आखोँ से नीर बहे
फटे दर्रों में जल महसूस करता रहा
पेड़ कत्थहे हुए सबकी छाया भी गई
सारी फसलें कटीली झाड़ियाँ बनी
यहाँ पे कोई तो वहाँ पे कहीं
भूख से तड़पती लाशें दिख रही
बड़ा वीभत्स था मंजर देश का
आके अकाल सब बर्बाद करता रहा
मैने भरसक किया जो कर सकता था
हारकर तमाशा मै देखता रहा
कुदरत का कहर क्यूँ इतना निर्मम
हर जगह मौत तांडव करता रही
तरसता तड़पा रहा पूरा जहान
दिल न पसीजा जरा ऊपरवाले का
आसमां का भी दामन न भीगा कहीं
मै कयामत की गुजारिश करता रहा।।
  ©®―अश्विनी यादव

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

एक हसीं सा ख्वाब है तू

सजाकर  माथ  पे बिन्दी
लगाकर आँख में काजल
रचाकर  हाथ  में  मेंहदी
पहनकर  पांव में  पायल
सुर्ख़  होंठों की लाली से
कभी  मुस्कान करती  हो
तुम्ही में खो सा जाता  हूँ
जब हँसकर बात करती हो
------------------―
चमकती नाक की नथुनी
खनकते ये हाँथ के कंगन
गाढ़ी  सी  चूनर  धानी
कसी  हुई कमर की कर्धन
मोती  माला  सजी गर्दन
बाली जुल्फों संग लटकती है
समां  थम  सा  जाता है
जब हमारी ओर तकती हो...
--------------------
    ―अश्विनी यादव

'व्यथा' ― मेरी जिन्दगी की

सारी जिन्दगी की मेहनत, किसी अपने के लिए अथक परिश्रम किया गया हो और अचानक, से
सब बिखर जाये तो……वो पीड़ा वही समझ पायेगा जिस पर उस वक्त बीत रही होती है...,
इसका दर्द ताउम्र रहता है। और उस पर व्यथित मन से ....
व्यथा - मेरी जिन्दगी
-----------------–-
हवा न जाने कहाँ है
पत्ते भी हिल रहे नही
कहीं हमारे जीवन में
अनहोनी का अंदेशा तो नही
अभी तक मेरे बच्चों ने
उड़ना भी सीखा नही
इन नवजातों ने घरौंदों छोड़
नील गगन देखा भी नही
क्या होगा कैसे बीतेगी
सोच रही थी एक चिड़िया
खुदा सितम करेगा हमपे भी
ये हमने कभी सोच ही नही.....
―-------------------―
वन में चहचाहट बनी थी
कि घिर आये काले मेघा
तरु पूरा हिलने सा लगा
तभी आया तूफानी झोंका
टूट गयी वही टहनी
जिस पर था आशियाँ बना
सब नाजुक नाजुक पन्खो से
जीने की बगावत छेड़ दिये
पर उन सबकी न एक चली
बेदर्दी ने पन्ख भी तोड़ दिये
माँ चीत्कार कर रही थी
और पूछ रही उस जालिम से
जब एक घरौंदा तूने नही बनाया
तो क्यूँ हजारों घरौंदे तोड़ दिया...
-――o९/१२/२o१५――-
©®― लेखक/कवि- अश्विनी यादव

उसके हाँथ के कंगन

'उसके हाँथ के कंगन'
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बहुत ख़ामोश लगते है
अब उसके हाँथ के कंगन,
कभी दिनभर खनकते थे
वो उसके हाँथ के कंगन,
कोई बात है जरूर
जो बताया नही उसने,
पर वो है बड़ी गुमसुम
ये बयाँनात् है कंगन,
हलचल करके हरपल में
नये साज करते थे,
किसी आँगन में सजाते थे
रोज नग्मात ये कंगन,
आज आँगन बदल रहा
बदल गये उसके कंगन,
शायद अब बदल के राग
कहीं और छेड़े सरगम,
मनमाफ़िक ना साजन
वो बांधी गयी थी जबरन,
न संवरते है न खनकते है
अब उसके हाँथ के कंगन,
वो मिठास नही दिखता
उसके बात बोली में,
वो खुलापन है गायब
उसकी हँसी-ठिठोली में,
रंगत उड़ गयी रुख से
न हाँथ हरकत करते है,
चूड़ी बन गयी सौतन
अब कंगन नही खनकते है,
विदाई वख्त हल्के से
रोये थे उसके कंगन,
जन्मों तक ये बोझ कैसे
सम्हालेंगे उसके कंगन,
कभी बापू से लगके फूटे
माँ के अँचरे में जा सिमटे,
दूर से दिखा प्रियतम
तडपकर रह गये कंगन,
सिसकते से गैर के हाँथ में
सबने रख दिए कंगन,
सपने बह रहे आँखों से
जिनसे भीग रहा कंगन,

©®―कवि/लेखक -अश्विनी यादव
______________________________
……

सोमवार, 28 मार्च 2016

किसान मर गया

बड़ी चहल-पहल मची है । नेता जी शोक सभा में जा रहे है । उन्हें किस किस बात पे क्या क्या बोलना है, पहले किससे मिलना है। वहाँ का लोकल नेता कौन है पता लगाया जा रहा है।
-----वही दूसरी ओर एक घर में चारपाई पे एक जर्जर हुई शरीर। अगल बगल कई बिलखते चेहरे। जिसमे एक लगभग पागल सी दिखने वाली औरत.....और तीन बच्चे। जिनकी हालत कुपोषण के साये में जीवंत है।
बाजार में, सदन में, मन्दिर के ट्रस्ट की आफ़िस, नमाज के बाद मस्जिद के बगल में, नुक्कड़ पे  बार बार लगातार एक चर्चा बड़ी गर्म चल रही है,,,"फिर एक किसान मर गया"....
'किसान मर गया'
-------------------
चर्चाएँ चल रही चहुँओर
कि एक किसान मर गया,
संवेदना लेकर हर नेता
उसके घर पे है गया,
बात सदन में उठ रही
मौत क्यूँ हुई उसकी,
सत्ता कह रही कल की
ठंड से मर गया,
विरोधी पुरज़ोर कह रहे
वो कर्ज में डूबा था,
फसले हो गयी बर्बाद
वो डरके मर गया,
पर राहत देने को
कोई आगे नही आया,
मुआवज़े का ऐलान हुआ
पर मजाक बनकर रह गया,
अपने दो वक्त की रोटी को
जो सैकडों पेट भरता था,
वो जमीर का अमीरजादा
बेनाम किसान मर गया,
पर एक बात सच्ची सी
छोटी सी बच्ची बोली,
बाबू कई दिन से भूखे थे
उन्होंने खा ली जहर गोली,
कुछ ठेकेदार मजहब के
पूछ रहे है सबसे,
जरा पता करो जल्दी
हिंदू था कि मुसलमान मर गया,
ये दास्तान सुन करके
मेरा इन्सान मर गया,
बाँट लो दरख्तों को
तख्तों को ओ जल्लादों,
तेरा खुदा मर गया
और मेरा राम मर गया..
हलचल है शहर में की
फिर से एक किसान मर गया...
――
कुछ बेहूदे अभी तक कुतर्क कर रहे है आपस में ..
'यार उसके पत्नी का अफेयर था शायद,,, नही बे उसकी कही और सेटिंग थी उसी के चक्कर में,  अरे पीने के चक्कर में लड़ाई की होगी और फिर सुसाइड कर लिया होगा...
--©®---कवि/लेखक― अश्विनी यादव