एक बूँद की चाहत में तरसता रहा
शायद अंत है निकट अब लग रहा
सूखा है गला न आखोँ से नीर बहे
फटे दर्रों में जल महसूस करता रहा
पेड़ कत्थहे हुए सबकी छाया भी गई
सारी फसलें कटीली झाड़ियाँ बनी
यहाँ पे कोई तो वहाँ पे कहीं
भूख से तड़पती लाशें दिख रही
बड़ा वीभत्स था मंजर देश का
आके अकाल सब बर्बाद करता रहा
मैने भरसक किया जो कर सकता था
हारकर तमाशा मै देखता रहा
कुदरत का कहर क्यूँ इतना निर्मम
हर जगह मौत तांडव करता रही
तरसता तड़पा रहा पूरा जहान
दिल न पसीजा जरा ऊपरवाले का
आसमां का भी दामन न भीगा कहीं
मै कयामत की गुजारिश करता रहा।।
©®―अश्विनी यादव
हमें प्रयास करते रहना चाहिए ज्ञान और प्रेम बाँटने का, जिससे एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा सके।
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शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016
ये कयामत क्यूँ
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