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सोमवार, 27 मई 2019

नज़्म (कानों से लटकती बाली )

नज़्म
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उसे तुम कहूँ
या आप से शुरुआत करूँ
पता नही क्या अच्छा लगे
मैं कल से बस
फ़िक्र में हूँ
उसके कानों से लटकती बाली
जिसको उसकी आंवारा ज़ुल्फ़ें
बार बार चूम रही थीं
वो कल से मुझे
बेतहाशा याद आ रही हैं
गर्दन की ढाल से पहले तक
आँख से लेकर कान तक
हर तरफ ज़ुल्फ़ों का ही
पहरा है
जो मेरी नज़रों को
रोकती हैं उसे
चूम लेने से....…
फिर भी मैं
महसूस करता हूँ
चूम लेता हूँ......
वो जो इक तिल है न
उसी से मज़बूर हूँ
कि देखता रहूँ
अपनी आँख जाने तक
तुम से दूर जाने तक
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   अश्विनी यादव