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शनिवार, 20 नवंबर 2021

नज़्म ~ दम्भी का दम्भ

दम्भी का दम्भ है टूट गया
सच पर से कालिख़ छूट गया

बलिदान हुए हैं जो अपने
“आज़ाद ,, बने हैं वो अपने

हर इक आँसू का बदला है
कुछ पिछला है कुछ अगला है

लाशें, मातम, बेचैनी सब
याद करो उसकी करनी सब

हर लाठी पर ज़ख़्म पे अपने
ख़ून बहाए सींचे सपने

ज़ुल्मी से तो लड़ना ही था
आख़िर लड़कर मरना ही था

मरने का जब ख़ौफ़ नहीं है
अस्ल कहूँ तो जीत वहीं है

सब ने मिलकर जीता है ये
साथ लड़ेंगें वादा है ये

हर इक ज़ुल्मी झुक जाएगा
जो भी हमसे टकराएगा

हाँ! ख़ून समेटो मुस्काओ
अब सारे आँसू पी जाओ

हम माटी के लाल हैं प्यारे
दिल्ली हैं बंगाल हैं प्यारे

खेत हमीं से देश है हमसे
गाँव, गली परदेश है हमसे

  ~ अश्विनी यादव