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मंगलवार, 20 मई 2025

नई ग़ज़ल

तुम्हारे बिना जाने कैसा रहूँगा
मैं जीता रहा भी तो कितना रहूँगा

मुझी पे अमर बेल लिपटी हुई है
नहीं हूँ हरा मैं सो सूखा रहूँगा

उदासी मुझे प्यार करने लगी है
इसी के सहारे मैं तन्हा रहूँगा

हो तुमको मुबारक ये रंगीन महफ़िल
मैं सादा जिया हूँ सो सादा रहूँगा

मुझे अब बुलाता है गंगा का पानी
मेरी जां मैं शाइर हूँ ज़िन्दा रहूँगा

कोई जब तुम्हें भी सताएगा ऐसे
इसी दर्द सा याद आता रहूँगा

मुझे दफ़्न कर दो तो अच्छा रहेगा
भला कब तलक मैं ये ढोता रहूँगा

    ~ अश्विनी यादव