बादलों से छूटी पानी की बूंद हूँ
हरे पत्ते से टपकती हुई बूंद हूँ,
मिलकर और से बड़ी हो गयी
फिर टूटकर बिखरती हुई बूंद हूँ,
माँ के घड़े से ताकती हुई सी हूँ
या छलकर कमर पे सम्हली हुई,
झरने के आड़े टेढ़े रास्ते की हूँ
हूँ बावली काई पे फिसलती हुई,
मैं बूंद भी हूँ औ तेरी बेटी भी हूँ
― अश्विनी यादव