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शुक्रवार, 14 मई 2021

ग़ज़ल

सोच रहे हैं मदद को निकलें लेकिन उनका भी डर है
इस डर से मर जाने दें ? हद है क्या इतना भी डर है

डर डर कर जीने से अच्छा लड़कर ही मर जाएं हम
बेसुध, सहमा, पागल, बंदी ऐसे रहना भी डर है

घर में सर दीवारों से टकराने से क्या हासिल है
खिड़की खोलो बाहर जाओ घर में छिपना भी डर है

बन्दूकों से सत्ता हासिल कर सकते हो तुम लेकिन
रोज़ कोई आवाज दबाना चीख़ दबाना भी डर है

चारासाज़ों के मरने पर बागी लोग बढ़ेंगे ही
उजलत में यूँ जेल बनाना, टैक्स बढ़ाना भी डर है
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अश्विनी यादव