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रविवार, 17 दिसंबर 2017

विस्मृता ( Vismrita )

मेरी चाय जब भी मेज पर आती है, तो मैं उस कॉफ़ी को याद करता हूँ एक जोड़े कप में आई थी..... पिज्जा का वो एक टुकड़ा जो साथ खाया था....मुझे उसका स्वाद न याद है न उस वक्त समझ मे आया था। क्युंकि सामने एक खूबसूरत चेहरा और उसकी आंखें....जिसे मैं बातों बातों में देख ले रहा था....काहे की सामने से देख पाऊँ, इतनी हिम्मत नही हो रही थी....।।
ये जो भी समय था कुछ धुंधला हुआ सा अभी तक है मेरे जेहन में,,,,शायद यहीं है 'विस्मृता'....
तुम आज भुलाई जा चुकी हो ये दिलाशा लगतार मैं दिलाते हुए फिर अपनी चाय की चुस्कियों पर आ टिका हूँ। हाँ मुझे अब कॉफ़ी का स्वाद अजीब लगता है....।।
कैफेटेरिया के उस सीट से प्यार कहूँ या नफ़रत पर एक दो दिन में एकाध बार उस पर बैठ ही जाता हूँ। तुम दिखती भी हो तो ये पक्का नही कर पाता हूँ कि देखूँ या न देखूँ....और देखता भी नही हूँ...पर मैं खुद भी नही जानता कि कब में उसका चेहरा मेरे आंखों से होता हूँ...दिमाग तक चला जाता है पता नही।
इस विस्मृता से मैं जल्द ही रूबरू करवाऊँगा आप सभी को....