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सोमवार, 4 जून 2018

नज़्म ( हम बैठे है )

रेलगाड़ी के गुजरने से
वो पुल थरथराने लगा
जिसके नीचे 'हम' बैठे हैं,

गंगा का पानी भी न
अठखेलियां करने लगा
इसके बगल 'हम' बैठें हैं,

उसकी उंगलियां बेझिझक
मेंरी उँगलियों से लिपटी हैं
इतने पास 'हम' बैठें हैं,

रेत से हो पानी चूमता हुआ
झोंका हवा का झूमने लगा
ऐसे होश खोकर 'हम' बैठें हैं,

उसका सर मेरे कांधे पे
पूरा का पूरा टिकने लगा
रुकती सांस लिए 'हम' बैठें हैं,

अभी रंगीनियों में डूबे थे
याद आया समाज हमको
जिससे छुप के यहां 'हम' बैठें हैं,

जाने कैसी जाति की लाज की
ये बेंडियां बनाई गई हैं
जिनसे डरकर आज 'हम' बैठें हैं,

वो जिसके साथ जीना मरना है
उसको चुन लेना भी गुनाह है
ऐसी इंसानियत लिये 'हम' बैठे हैं,

खाप का है फैसला मार देंगें
हमारी भी ज़िद है जी लेंगें
ये एहसास में डूबे 'हम' बैठे हैं,

एक दफा जी करता है मर जाये
सदियों की बेड़ियों कैसे तोड़ेंगें
इश्क़-खौफ़ द्वंद में 'हम' बैठें है,