कोख में रखकर नौ माह हमको
हजारो दुःख सहती रहती है,
लात लगे, मिचली-चक्कर आये
सूरज से पहले जागी रहती है,
आम पेड़ सी अमरबेल से हमको
खुद घुटकर जिंदा रखती है,
डर हो नसें फटें भले हड्डियां टूटें
जां देने को आमदा रहती है,
चिमटा, बेलन, थाली, चाकू सब
चौके चूल्हे में उलझी रहती है,
दूध, दवाई, कपड़ा, मालिश को
भूले से न बिसराया करती है,
काजल, फुग्गा, लाड, लोरी संग
चांद सोये तो सोया करती है,
स्कूल टिफ़िन औ पांच रुपया दे
हमें यूं भी बहलाया करती है,
मेरी खुशी की ख़ातिर ही अम्मा
घरवालों से भी लड़ पड़ती है,
हम लाख बड़े हो जाये फिर भी
अक्सर नहलाया करती है,
गुस्सा करती है रोती है लेकिन
मेरे आंसू देख चुप करती है,
विधाता न मिला अबतक हमको
मुझे मां ही खुदा सी लगती है,
जब मां इतनी पागल सी होती है
तो पागल ही अच्छी लगती है,
अश्विन, मां शब्द अजर अमर है
शब्द में सृष्टि समायी रहती है,
अश्विनी यादव
महासचिव, उत्तर प्रदेश
राष्ट्रीय साहित्य चेतना मंच