शाम हो रही है यार
तुम सबकी याद कसक रही है,
बुलबुला बनके
मेरे दिली सरोवर में तैर रहे है,
वो जब टहलते थे कभी कभी
'राम विलास' के चाय की चुस्की
फिर 'गुप्ता जी' के पकौड़े
चलते-चलते 'माखन भोग'
ज्यों ही पंहुचते थे जेब में
लगभग आग ही लग जाती थी,
इस उलट फेर का तमाशा
और मजेदार हो जाता था,
जब वही रास्ते 'जूनियर्स' को नमस्ते
सर यादआ जाता था,
छोटे भाइयों के लिए अपना
फर्ज अदा करते थे मिल बाँट के,
टहलते टहलते स्टेशन का भी
जायजा लेते हुए,
मन्दिर जा के प्रभु को अक्सर
याद करते थे हम...
हम अच्छे थे तब हम सच्चे थे,
अब जोड़ तोड़ गुणा गणित का
हिसाब-किताब का प्रश्न हो या
अपने रुतबे की बात आ जाये
लेकिन प्यार हमारा वही था
वहीं है शायद वहीं रहेगा...
भले स्वाद चाय से काफ़ी जैसा हो,
लेकिन आज भी तेरी फ़िक्र
किसी चूल्हे पे रखे 'दूध' जैसा है..
उबलता है, और बहने लगता है यारों....
―आप में से ही एक, आपका
"अश्विनी यादव"
हमें प्रयास करते रहना चाहिए ज्ञान और प्रेम बाँटने का, जिससे एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा सके।
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सोमवार, 20 मार्च 2017
हर दिन नया सा था
शिव सर्वत्र है
शिव ही सब है, सब में शिव है,
शिव ब्रम्ह है, जहाँ भी शिव है,
दुःख भी शिव है, सुख भी शिव है,
मन भी शिव है, मुख भी शिव है,
शिव ही ओज है, तेज भी शिव है,
शिव समस्या, शोध भी शिव है,
शिव छुपा है, खोज भी शिव है,
शिव ही मिथ्या, सत्य भी शिव है,
शिव आकार, निराकार शिव है,
शिव चमत्कार, विचार भी शिव है,
शिव ही नियम है, कर्म भी शिव है,
शिव ही सुन्दर, धर्म भी शिव है,
शिव है जन-जन के रग - रग में,
शिव निहित हैं हर में इक कण में
शिव संसार है, शिव ही सकल है,
शिव समुद्र है, शिव ही जल है,
शिव सर्वस्व, ब्रम्हाण्ड भी शिव है,
शिव ही आदि है, अनन्त भी शिव है,
___जय शिव शंकर___
― अश्विनी यादव
लूट गये
राम नाम पे लूट ले गये
गाय पे हत्या जारी है,
दलितों को सब पीट गये
गंगा पूजन उधारी है,
खुद को राष्ट्रवादी कहते
सेना पे वोट बाजारी है,
अपने मर रहे रोज पर उन्हें
विदेशी जमीने प्यारी है,
दुःख नही झूठे सारे वादे थे
हाँ ये सरकार व्यापारी है,
मन्दिर मन्दिर हर बार किये,
पर समय न कभी जारी है,
गर मन्दिर बना तो भेद खत्म,
बस यहीं समस्या सारी है,
समाजवाद का कल्पित चेहरा,
ठाना राम पार्क बनवाने का,
वोट खातिर धर्म युद्ध शुरू किये,
ये भूल तुम्हारी भारी है,
व्यापार इनके खून में बह रहा,
बह चुकी हिंदुत्वता सारी है,
ये दलाल है उद्योगपतियों के,
सब पैसे वालों के दरबारी है।
© ―अश्विनी यादव
दिवाली की जरूरत
#त्यौहार_गरीबों_के
खुश था दिवाली आ रही थी
फिर से खरीदी होगी,
घरो में सजावट हो रही थी
दीप की उम्मीदी होगी,
मेरी किसानी खत्म हो चली
जाने क्या बर्बादी होगी,
कलह यूँ आ पड़ी मंहगाई की
या कपड़े या दवाई होगी,
ये जिन्दगी मगरूर है बड़ी
काश! कोई लाटरी होती,
कम से कम इक आस होती
न या ख़ुशियाँ की चाभी होगी,
© अश्विनी यादव
मैं ही इंकलाब हूँ
गरीबों का छप्पर हूँ, कलम की आवाज हूँ,
दुखियों का रहबर हूँ, बेबसों का सरताज हूँ,
जला दे जुल्मी को, शब्दों में लिपटा आग हूँ,
रक्त रंजिश शमशीर हूँ, हाँ मै ही इन्कलाब हूँ,
पहली उठी बंद मुठ्ठी हूँ, शोषितों के जज्बात हूँ,
रोज गिरती हुई ईमारत सी, सोच-ए-समाज हूँ,
किस्तों में जीना छोड़,निर्माण की शुरुआत हूँ,
'कलम की आवाज हूँ, हाँ मै ही इन्काब हूँ,
― अश्विनी यादव