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सोमवार, 20 मार्च 2017

हर दिन नया सा था

शाम हो रही है यार
तुम सबकी याद कसक रही है,
बुलबुला बनके
मेरे दिली सरोवर में तैर रहे है,
वो जब टहलते थे कभी कभी
'राम विलास' के चाय की चुस्की
फिर 'गुप्ता जी' के पकौड़े
चलते-चलते 'माखन भोग'
ज्यों ही पंहुचते थे जेब में
लगभग आग ही लग जाती थी,
इस उलट फेर का तमाशा
और मजेदार हो जाता था,
जब वही रास्ते 'जूनियर्स' को नमस्ते
सर यादआ जाता था,
छोटे भाइयों के लिए अपना
फर्ज अदा करते थे मिल बाँट के,
टहलते टहलते स्टेशन का भी
जायजा लेते हुए,
मन्दिर जा के प्रभु को अक्सर
याद करते थे हम...
हम अच्छे थे तब हम सच्चे थे,
अब जोड़ तोड़ गुणा गणित का
हिसाब-किताब का प्रश्न हो या
अपने रुतबे की बात आ जाये
लेकिन प्यार हमारा वही था
वहीं है शायद वहीं रहेगा...
भले स्वाद चाय से काफ़ी जैसा हो,
लेकिन आज भी तेरी फ़िक्र
किसी चूल्हे पे रखे 'दूध' जैसा है..
उबलता है, और बहने लगता है यारों....
    ―आप में से ही एक, आपका
    "अश्विनी यादव"

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