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सोमवार, 6 जनवरी 2020

ग़ज़ल

लाल लहू का खेल हुआ तो कुछ का मरना वाजिब है,
जान गई आज़ादी पर तो इतना मँहगा वाजिब है,

मुल्क़ गया तो जीना कैसा हाथों को आज़ाद करो,
उस ख़ूनी, जालिम का आख़िर हमसे डरना वाजिब है,

सच की ज्योत जलाने वाले पागल में से मैं भी हूँ,
तेरा, मेरा, इसका, उसका, सबका लड़ना वाजिब है,

ज़ुल्म के आगे पत्थर था चूर हुआ हूँ अच्छा है,
अपने 'अपनों' पर सारे ख़्वाब बिखरना वाजिब है,

बन्दूक उठाकर सत्ता पर काबिज तो हो सकते हो,
ऐसे तो सबकी नज़रों में तेरा गिरना वाजिब है,

ग़र सोच रहे हम पीछे हट जाने वाले कायर हैं,
इस सीने से गोली भी आज गुजरना वाजिब है,
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अश्विनी यादव