जब किसी बेबस को रंग नही लगाता हूँ,
किसी गरीब का चेहरा नही खिलाता हूँ,
खुद की आटा, दाल,औ नमक में हैरान,
सच कहूं तो सच्ची होली नही मनाता हूँ,
टूटी झोपडी का चीत्कार देखता हूँ जब,
किसी का उतरता श्रृंगार देखता हूँ जब,
इन रंगों में हमको वो ख़ुशी नही दिखती,
बाप शहीद को कंधा देते देखता हूँ जब,
जो रात सन्नाटे में आबरू नीलाम होती है,
कोई सावित्री भी खौफ में गुमनाम होती है,
तो हमारे चुप हुए होंठों का ही नतीजा है,
की कभी बहन कभी बेटी बदनाम होती है,