तुम आगे की सीट पर बैठी
क़िताब में उलझी हुई थी
और मैं तुम्हारे बगल से
दो सीट पीछे बैठा
तुम्हारे बालों में उलझा था
जिनसे छनकर
तुम्हारे चेहरे की रौशनी
मुझ तक आ रही थी
तुम्हारे उंगलियों के बीच फँसी
वो ख़ुशनसीब कलम
जिसे लगातार अपने होठों से
छुए जा रही थी
और इधर मैं ख़ुद को
कलम सा महसूस
कर रहा था.....
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अश्विनी यादव
हमें प्रयास करते रहना चाहिए ज्ञान और प्रेम बाँटने का, जिससे एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा सके।
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शुक्रवार, 5 जून 2020
नज़्म ( ख़ुशनसीब कलम )
क़िस्से भारत भूषण पन्त के
मैं और भारत भूषण पन्त दादा
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भारत दादा का एक शे'र जिसे पढ़ने में, कहने में लगभग हर बार मैं ग़लती कर देता था.....
"क़रीब आती हर एक शय ने मेरा नज़रिया बदल दिया है
मैं जिसके पीछे पड़ा हुआ था उसी से पीछा छुड़ा रहा हूँ,,
लेकिन अब याद है। हाँ तो शे'र को जब उन्होंने मेरे लिए पढ़ा तो मैं बस मुस्कुरा ही पाया और मुँह से इतना निकला कि "अरे यार दादा आप के पास होना ही मेरी कमाई है और मेरी ज़िंदगी का ये मुक़ाम है कि आप मुझे शे'र सुना रहे हैं वो भी बगल बैठाकर,,और फिर वो मुस्कुरा दिए।वो अपनी सफेद दाढ़ी -मूँछ के बीच में वो ही हल्की सी एक इंच मुस्कान लिए जब बोलते थे तो बहुत अच्छा लगता था।❤️
लेकिन उनके जाने के बाद मैंने देखा कि दो तरह के लोग सामने आए... एक तो वो जिनमें झूठे लोगों की बाढ़ सी आ गयी जैसे उन लोगों के लिए दादा के गुज़रने के कुछ दिन बाद ही एक ग़ज़ल कही थी जिसके शे'र कुछ यूँ है...
"मर जाते ही दुनिया को ख़ूबी दिखती है
बदल रहे हैं क़िस्से भी बतलाने वाले,,
दूसरे वो लोग भूल गए, जब तक ज़िन्दा थे तब तक अरे दादा ये अरे दादा वो , दादा आप महान हो ब्ला ब्ला....करके पोस्ट पर दीमक की तरह लगे रहते थे, और सबके सामने कहते थे कि दादा मैंने शाइरी के असली मानी तो आपसे ही सीखे हैं लेकिन अब वो ही उनके जाने के बाद एक पोस्ट तक नही कर पाए थे जन्मदिन पर या कोई और भी दिन पर...... ऐसे बहुत से नाम हैं क्या ही अब बेइज़्ज़त करूँ।
ये लो दादा का ही शे'र....
"मुनहसिर इतना लिबासों पर है मेरी शख़्सियत
हर किसी के सामने नंगा ही कर देगी मुझे,,
ख़ैर अब मेरे पोस्ट करने का कोई फ़ायदा नही होना है और उन दो कौड़ी के लोगों को कोई फ़र्क़ ही पड़ने वाला है। सो ये शे'र दादा का.....
इस बार तुम्हारे रोने पर कुछ लोग चले आये लेकिन,
हर बार कहाँ ये मुमकिन है हर बार कहाँ से लाओगे