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मंगलवार, 14 दिसंबर 2021

जौन एलिया


“ जो गुज़ारी जा सकी हम से

हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है ,,


जाने कौन सी ज़िन्दगी होगी वो जिसे गुज़ारने वाला ये दावा
करता है कि ये गुज़ारी नहीं जा सकती थी फिर भी मैंने वो ज़िन्दगी गुज़ार दी है।
लहू को थूकने की बात कहने वाला एक मात्र शायर जिसे दर्द की कलम, दर्द का दीवाना, मुहब्बत का शायर, जानी, हज़रत जौन... 

ऐसे न जाने कितने नामों से हम याद करते हैं नाम है जौन एलिया... बहुत जगह पर जान तो कहीं पर जॉन लिखा मिल सकता है, अब जब नाम की बात आ ही गयी है तो एक शे'र याद आता है उनका...

“ मैं जो हूँ 'जौन-एलिया' हूँ जनाब

इस का बेहद लिहाज़ कीजिएगा ,,

ऐसे ही तमाम ऐसे शे'र हैं हर किसी की ज़बान पर जैसे बस ही गए हैं।

जौन एलिया के बारे में एक दो चार नहीं बल्कि सैकड़ों की तादात में ब्लॉग्स मिल जाएँगें पढ़ने को, लेकिन सच कहूँ तो जौन को जानना है , महसूस करना है तो जौन की नज़्मों को पढ़िए सब समझ आने लगेगा।

नज़्म ( रम्ज़ )

तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे
मेरी तन्हाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं

मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं

इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर 
इन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहन

मुज़्दा-ए-इशरत-ए-अंजाम नहीं पा सकता
ज़िंदगी में कभी आराम नहीं पा सकता


नज़्म  ( सज़ा  )


हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम 

हर बार तुम से मिल के बिछड़ता रहा हूँ मैं


तुम कौन हो ये ख़ुद भी नहीं जानती हो तुम 

मैं कौन हूँ ये ख़ुद भी नहीं जानता हूँ मैं 


तुम मुझ को जान कर ही पड़ी हो अज़ाब में

और इस तरह ख़ुद अपनी सज़ा बन गया हूँ मैं


तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं

पस सर-ब-सर अज़िय्यत ओ आज़ार ही रहो


बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िंदगी से तुम 

जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो


तुम को यहाँ के साया ओ परतव से क्या ग़रज़

तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो


मैं इब्तिदा-ए-इश्क़ से बे-मेहर ही रहा 

तुम इंतिहा-ए-इश्क़ का मेआ'र ही रहो


तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई 

इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो


मैं ने ये कब कहा था मोहब्बत में है नजात 

मैं ने ये कब कहा था वफ़ादार ही रहो


अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मिरे लिए

बाज़ार-ए-इल्तिफ़ात में नादार ही रहो


जब मैं तुम्हें नशात-ए-मोहब्बत न दे सका 

ग़म में कभी सुकून-ए-रिफ़ाक़त न दे सका


जब मेरे सब चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं

जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं


फिर मुझ को चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं

तन्हा कराहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं 


नज़्म ( नकारा  )


कौन आया है

कोई नहीं आया है पागल

तेज़ हवा के झोंके से दरवाज़ा खुला है

अच्छा यूँ है

बेकारी में ज़ात के ज़ख़्मों की सोज़िश को और बढ़ाने

तेज़-रवी की राहगुज़र से

मेहनत-कोश और काम के दिन की

धूल आई है धूप आई है

जाने ये किस ध्यान में था मैं

आता तो अच्छा कौन आता

किस को आना था कौन आता




  जौन एलिया को महसूस कीजिये❤️