हम मज़दूर हैं, हम काले हैं
गिरने की, जलने की, मेहनत की
आदत है हमारी,
लेकिन तुम नाज़ुक हो चुके हो
हमारा ख़ून पीते पीते..
हमारे ये हाथ तेरे
इन हथौड़ों से ज़ियादः
इन पत्थरों से ज़ियादः
मजबूत हो गए हैं
खदाने बदल गईं
कुदालें बदल गईं
लेकिन ये हमारे हाथ
नही बदले तो नही बदले....
हम जानवर तो नही थे
जो यूँ हमें तुमने बेंचा
फिर से ख़रीदा फिर से बेंचा
मैं पूछता हूँ के आख़िर क्यों..?
मेरे रंग के कारण ?
मेरी जात के कारण ?
या मेरे भाषा के कारण ?
चलो मैं फिर से पूछता हूँ
अधिकार किसने दिया ?
ऊँचा किसने बनाया ?
मैं उसी से जंग चाहता हूँ
तुम बीच में मत आना
नाज़ुक हो टूट जाओगे
जब पहाड़ तोड़ दिया
तो तुम कुछ भी नही हो....
~ अश्विनी यादव