नाम तेरा हम लिखते मिटाते रहे
तुझे झरोखों से देख मुस्कुराते रहे
चर्चा कालेज में थी हूँ मै आशिक तेरा
वो भाभी है तेरी हम समझाते रहे
एक तेरे चक्कर में कितने लफड़े हुए
अपने हमयार भी नजरे चुराने लगे
बस तुझे छोड़ सबको थी ये खबर
क्यूँ तेरे नाम पे लुटने-लुटाने लगे
यूँ दिलकशी में पढाई चौपट हो रही
ध्यान तेरे सिवा और कुछ भी न था
कह न पाया कभी तुमसे दिल की बात
और तुम हँसकर सबसे बतियाते रहे
मै आंवारा न होऊ सो शहर आ गया
पूरा शहर परियो की बगिया लगी
भूलने लगा तुम्हे तितलियों में रहकर
जिम्मेदारी पढाई की बढने लगी
बीच में जब भी घर आना हुआ
तुम हमे देखकर शरमाने लगे
एक साल न गुजरे तेरी शादी हो गई
आज अफसर हो हम भी कमाने लगे
फिर भी अफ़सोस है उस अधूरेपन का
जिसे ख़यालों में हम गुनगुनाते रहे
मेरे यारों को उनकी वो भाभी न मिली
जिन्हें हम "जान" कहके बुलाते रहे...
कवि- अश्विनी यादव