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शुक्रवार, 10 मई 2019

'वो लड़की'

न समझ थी
न ही ताक़त थी
न ही शरीर का कोई अंग विकसित था
वो बस चौदह बरस की थी
फ़िर भी उसे
सहना पड़ा ये
पहाड़ बराबर दुःख
ये वो पीड़ा थी
जिसकी बराबरी
सौ बिच्छुओं का डंक,
हर इक हड्डी टूट जाने
नही कर सकता
और सच कहूँ तो कोई अनुमान नही
इतना दर्द उफ़्फ़!
लेकिन फ़िर भी
आदेश था कोर्ट का
जनना था उस बच्चे को
जो पैदा होने से पहले ही
ज़िन्दा लाश बना दिया था
ये अनचाही चीज़
उसे मिली कैसे कोई बतायेगा ?

ये भी इक बच्ची थी
अभी खेल कूद रही थी
इसके बस्तों की किताब भी
अगले कक्षा का
और इसका जन्मदिन अगले बरस का
दोनों इंतज़ार में थे
इक दिन कुछ दरिंदों ने
इस फूल को नोच डाला
इतना नोंचा जितनी ताक़त थी उनमें
पहले तो बात दबी
लेकिन ये बात नही आग थी
जिसने उन जिस्मों को जला दिया
जो छुपाना चाहते थे
फिर भी इस आग को
थाने के तूफ़ान से बढ़कर
कचहरी के बारिश को पार करना था

आज़ बहुत देर हो गयी
मीलार्ड की आँख खुलने में
क्योंकि इन केस के पन्नों में पंख लगे है
पैसों के, तारीखों के,
पेट का आकार बढ़ गया है
जान के अंदर भी इक जान आ गयी है
और कहा गया देर हो गयी है
इसे जनना होगा
वो लगभग मर ही गयी होगी
उस ''अनचाहे'' को जनने में
बच्चा अनाथाश्रम का हुआ
और इस अधमरी को दस लाख का चेक,
ये रुपया इसको आगे के लिए था
या ज़िन्दगी गंवाने का था
या फ़िर बलात्कार सहने
बच्चे पैदा करने का ईनाम था

पर अभी समझ न आया कि
देर हुई कहाँ थी
क्यूँ सहना पड़ा ?
सज़ा में देरी क्यूँ?
सज़ा किसको मिली आख़िर….?

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      अश्विनी यादव
ashwini yadav poetry