सारी जिन्दगी की मेहनत, किसी अपने के लिए अथक परिश्रम किया गया हो और अचानक, से
सब बिखर जाये तो……वो पीड़ा वही समझ पायेगा जिस पर उस वक्त बीत रही होती है...,
इसका दर्द ताउम्र रहता है। और उस पर व्यथित मन से ....
व्यथा - मेरी जिन्दगी
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हवा न जाने कहाँ है
पत्ते भी हिल रहे नही
कहीं हमारे जीवन में
अनहोनी का अंदेशा तो नही
अभी तक मेरे बच्चों ने
उड़ना भी सीखा नही
इन नवजातों ने घरौंदों छोड़
नील गगन देखा भी नही
क्या होगा कैसे बीतेगी
सोच रही थी एक चिड़िया
खुदा सितम करेगा हमपे भी
ये हमने कभी सोच ही नही.....
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वन में चहचाहट बनी थी
कि घिर आये काले मेघा
तरु पूरा हिलने सा लगा
तभी आया तूफानी झोंका
टूट गयी वही टहनी
जिस पर था आशियाँ बना
सब नाजुक नाजुक पन्खो से
जीने की बगावत छेड़ दिये
पर उन सबकी न एक चली
बेदर्दी ने पन्ख भी तोड़ दिये
माँ चीत्कार कर रही थी
और पूछ रही उस जालिम से
जब एक घरौंदा तूने नही बनाया
तो क्यूँ हजारों घरौंदे तोड़ दिया...
-――o९/१२/२o१५――-
©®― लेखक/कवि- अश्विनी यादव
हमें प्रयास करते रहना चाहिए ज्ञान और प्रेम बाँटने का, जिससे एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा सके।
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सोमवार, 11 अप्रैल 2016
'व्यथा' ― मेरी जिन्दगी की
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