'उसके हाँथ के कंगन'
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बहुत ख़ामोश लगते है
अब उसके हाँथ के कंगन,
कभी दिनभर खनकते थे
वो उसके हाँथ के कंगन,
कोई बात है जरूर
जो बताया नही उसने,
पर वो है बड़ी गुमसुम
ये बयाँनात् है कंगन,
हलचल करके हरपल में
नये साज करते थे,
किसी आँगन में सजाते थे
रोज नग्मात ये कंगन,
आज आँगन बदल रहा
बदल गये उसके कंगन,
शायद अब बदल के राग
कहीं और छेड़े सरगम,
मनमाफ़िक ना साजन
वो बांधी गयी थी जबरन,
न संवरते है न खनकते है
अब उसके हाँथ के कंगन,
वो मिठास नही दिखता
उसके बात बोली में,
वो खुलापन है गायब
उसकी हँसी-ठिठोली में,
रंगत उड़ गयी रुख से
न हाँथ हरकत करते है,
चूड़ी बन गयी सौतन
अब कंगन नही खनकते है,
विदाई वख्त हल्के से
रोये थे उसके कंगन,
जन्मों तक ये बोझ कैसे
सम्हालेंगे उसके कंगन,
कभी बापू से लगके फूटे
माँ के अँचरे में जा सिमटे,
दूर से दिखा प्रियतम
तडपकर रह गये कंगन,
सिसकते से गैर के हाँथ में
सबने रख दिए कंगन,
सपने बह रहे आँखों से
जिनसे भीग रहा कंगन,
©®―कवि/लेखक -अश्विनी यादव
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