कोहरे की पहरेदारी थी
काश की तुम मिलने आती,
सर्द रातों की दुश्वारी थी
काश की तुम समझ पाती,
भेज ही देती किसी तरह
यादों का गर्म बिछौना तुम,
प्रेम पाश के कम्बल को
ओढ़ा दी होती मुझपर तुम,
दिन चमकना भूल गया है
क्या इसकी भी साझेदारी थी,
काश की तुम मिलने आती
फिर कोहरे की पहरेदारी थी,
____इस बेरहम कड़कती सर्दियों से खुदा जहाँ को बचाये,
( पंक्तियाँ :― अश्विनी यादव )
हमें प्रयास करते रहना चाहिए ज्ञान और प्रेम बाँटने का, जिससे एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा सके।
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शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016
काश! की तुम मिलने आती
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