बुंदेलखंड की परम् वीर भूमि महोबा और आल्हा-ऊदल एक दूसरे के पर्याय हैं। महोबा के सूरज की शुरुआत आल्हा से शुरू होती है और रात के चाँद की शुरुआत के साथ ही खत्म। बुंदेलखंड का जनमानस आज भी बड़ी ऊर्जा के साथ गाता है-
बुंदेलखंड की सुनो कहानी बुंदेलों की बानी में
पानीदार यहां का घोडा, आग यहां के पानी में
महोबा के ढेर सारे स्मारक आज भी इन दो वीरों की याद दिलाते हैं।
आल्हा और ऊदल, चंदेल राजा परमल के सेनापति दसराज के पुत्र थे। वे बनाफर वंश के थे, जो कि चंद्रवंशी क्षत्रिय समुदाय है। मध्य-काल में आल्हा-ऊदल की गाथा राजपूत शौर्य का प्रतीक दर्शाती है।
आल्हा -ऊदल दसराज (जसराज) और दिवला (देवल दे) के पुत्र हैं। कन्नौजी पाठ के अनुसार आल्हा का जन्म दशपुरवा (दशहर पुर, महोबा की सीमा पर एक छोटा-सा गाँव) में हुआ था। आल्हा की जन्म तिथि जेठी दशहरा बताई जाती है। आल्हा से ऊदल लगभग बारह वर्ष छोटे थे। जब ऊदल माँ के गर्भ में थे तो उनके पिता की हत्या हो गयी, सो पिता की हत्या बाद जन्म हुआ था।
ग्रियर्सन के अनुसार बनाफरो की पत्नियाँ मूलतः अच्छे परिवारों की थीं। बाद में उन्हें अहीर कहा गया। कदाचित् माहिल ने बैर भाव से यह अफवाह फैला दी हो। महोबा में, विवाह-संबंधों के संदर्भ में बनाफर "ओछी जात के राजपूत" कहे गए हैं।
आल्हा मध्यभारत में स्थित ऐतिहासिक बुंदेलखण्ड के सेनापति थे जो अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। आल्हा के छोटे भाई ऊदल थे वो भी वीर थे। जगनेर के राजा जगनिक ने आल्ह-खण्ड नामक एक काव्य रचा था उसमें इन दोनों वीरों की 52 लड़ाइयों की शौर्य गाथा वर्णित है।
ऊदल ने अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु पृथ्वीराज चौहान से युद्ध करते हुए ऊदल वीरगति को प्राप्त हुए। अपने छोटे भाई की वीरगति की खबर सुनते ही आल्हा का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुँचा।वो पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पड़े आल्हा के सामने जो भी आया मारा ही गया।क़रीब एक घण्टे की लड़ाई के बाद दोनों आमने सामने आ गए।
फिर पृथ्वीराज चौहान और आल्हा दोनों में भीषण युद्ध हुआ, जिसमें चौहान बुरी तरह घायल हुए गुरु गोरखनाथ के कहने पर पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया।इस तरह से हम जान सकते हैं कि आल्हा महावीर यूँ ही नहीं थे।
बुंदेलखंड के महा-योद्धा आल्हा ने नाथ पंथ स्वीकार कर लिया ।
आल्हा, चंदेल राजा परमर्दिदेव (परमल के रूप में भी जाने-जाते हैं) के एक महान सेनापति थे,जिन्होंने 1182 ई० में पृथ्वीराज चौहान से लड़ाई लड़ी,जो आल्हा-खांडबॉल में अमर हो गए।
आज भी बुंदेलखंड के महोबा से शुरुआत हुई जो देश भर में "आल्हा" गीत यानी आल्हा - ऊदल की शौर्य गाथाएँ सुनने को मिलेंगी। हम सभी ने कभी न कभी आल्हा जरूर सुना होगा, लेकिन कम ही लोग जानते होंगे की आल्हा के पचास से अधिक भाग हैं।
आल्हा लोकगीत की एक विधा है, जिसकी शुरूआत बुंदेलखंड के महोबा में हुई थी, आल्हा व उदल महोबा के राजा परमाल के सेनापति थे। बस यही से आल्हा गीत की शुरूआत हुई।
आज भी सारे सामाजिक संस्कार आल्हा की पंक्तियों के बिना पूर्ण नहीं होता। आल्हा का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि 800 वर्षो के बीत जाने के बावजूद वह आज भी बुंदेलखंड में अमर हैं।
आल्हा गायक धर्मराज का अवतार बताते है। कहते है कि इनको युद्ध से घृणा थी और न्यायपूर्ण ढंग से रहना विशेष पसंद था। इनके पिता जच्छराज (जासर) और माता देवला थी। ऊदल इनका छोटा भाई था। जच्छराज और बच्छराज दो सगे भाई थे जो राजा परमा के यहाॅ रहते थे। परमाल की पत्नी मल्हना थी और उसकी की बहने देवला और तिलका से महाराज ने अच्छराज और बच्छराज की शादी करा दी थी। कहते हैं कि मइहर की देवी से आल्हा को अमरता का वरदान मिला था। युद्ध में मारे गये वीरों को जिला देने की इनमें विशेषता थी। जिस हाथी पर ये सवारी करते थे उसका नाम पष्यावत था। इन का विवाह नैनागढ़ की अपूर्व सुन्दरी राज कन्या सोना से हुआ था। इसी सोना के संसर्ग से ईन्दल पैदा हुआ जो बड़ा पराक्रमी योद्धा हुआ।
कहते हैं कि आल्हा को यह नहीं मालूम था कि वह अमर हैं। इसका प्रमाण ये है कि अपने छोटे एवं महाप्रतापी भाई ऊदल के मारे जाने पर उन्होंने आह भर के कहा है-
पहिले जानिति हम अम्मर हई,
काहे जुझत लहुरवा भाइ ।
अर्थात
"कहीं मैं पहले ही जानता कि मैं अमर हूँ तो मेरा छोटा भाई क्यों जूझता"
आल्हा-खण्ड :-
आल्ह-खण्ड लोक कवि जगनिक द्वारा लिखित एक वीर रस प्रधान काव्य हैं जिसमें आल्हा और ऊदल की ५२ लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन हैं। ये दोनों राजपूतों के बनाफर वंश से संबंधित हैं।
पं० ललिता प्रसाद मिश्र ने अपने ग्रन्थ आल्हखण्ड की भूमिका में आल्हा को युधिष्ठिर और ऊदल को भीम का साक्षात अवतार बताते हुए लिखा है :-
"यह दोनों वीर अवतारी होने के कारण अतुल पराक्रमी थे। ये प्राय: १२वीं विक्रमीय शताब्दी में पैदा हुए और १३वीं शताब्दी के पुर्वार्द्ध तक अमानुषी पराक्रम दिखाते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये। ऐसा प्रचलित है की ऊदल की पृथ्वीराज चौहान द्वारा हत्या के पश्चात आल्हा ने संन्यास ले लिया और जो आज तक अमर है और गुरु गोरखनाथ के आदेश से आल्हा ने पृथ्वीराज को जीवनदान दे दिया था, पृथ्वीराज चौहान के परम मित्र संजम भी महोबा की इसी लड़ाई में आल्हा उदल के सेनापति बलभद्र तिवारी जो कान्यकुब्ज और कश्यप गोत्र के थे उनके द्वारा मारा गया था । वह शताब्दी वीरों की सदी कही जा सकती है और उस समय की अलौकिक वीरगाथाओं को तब से गाते हम लोग चले आते हैं। आज भी कायर तक उन्हें (आल्हा) सुनकर जोश में भर अनेकों साहस के काम कर डालते हैं। यूरोपीय महायुद्ध में सैनिकों को रणमत्त करने के लिये ब्रिटिश गवर्नमेण्ट को भी इस (आल्हखण्ड) का सहारा लेना पड़ा था,,
राजकुमारी फुलवा -ऊदल स्वयंवर :-
शिवपुरी जिले में स्थित नरवर किले में 12 वीं शताब्दी में प्रतापी राजा मकरंदी का राज हुआ करता था। राजा मकरंदी की एक छोटी बहन राजकुमारी फुलवा थीं।वो उस समय भारत देश की सुंदर राजकुमारियों में से एक थी। ऐसी किवदंती चली आ रही है कि राजकुमारी को फूलों से तोला जाता था। राजकुमारी के सौंदर्य की पूरे भारत देश के छोटे एवं बड़े राजघरानों एवं आम जनता में चर्चा बनी रहती थी।कहा जाता है कि हर व्यक्ति राजकुमारी के सौंदर्य को देखने के लिए लालायित रहता था।
उस समय आल्हा और उदल दो भाई बड़े ही शूरवीर एवं प्रतापी योद्धा थे छोटा भाई उदल सौंदर्यवान था। दोनों भाई ज्यादातर भ्रमण पर रहने के कारण वह भ्रमण करते हुए एक बार नरवर आए। जब ऊदल ने प्रथम बार राजकुमारी को देखा तो वह राजकुमारी को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए और राजकुमारी से मन ही मन प्रेम करने लगे। उस समय आल्हा-उदल के पराक्रम की ख्याति चारों ओर फैली हुई थी। राजकुमारी फुलवा को जब आल्हा- उदल की वीरगाथाओं और उदल के सौंदर्य के बारे में पता चला। कुछ समय पश्चात उदल राजकुमारी से मिलने के लिए नरवर आए और पूरी जांच पड़ताल करने के पश्चात उस मालिन के पास पहुंचे जो राजकुमारी के लिए फूलों का गजरा बना कर ले जाती थी। उदल ने मालिन से निवेदन किया कि वह कल मेरा बनाया हुआ गजरा राजकुमारी के लिए ले जाएं (क्योंकि उदल को विशेष एवं सुंदर गजरा बनाने में महारत हासिल थी) वह मालिन मान गई और दूसरे दिन उदल के द्वारा बनाया हुआ गजरा वह राजकुमारी के लिए लेकर गई। राजकुमारी को वह गजरा बहुत पसंद आया।इस कारण राजकुमारी ने मालिन से पूछा कि आज से पहले तो तुमने कभी ऐसा गजरा नहीं बनाया यह किसने बनाया है, इस बात पर मालिन ने राजकुमारी को उत्तर दिया कि यह गजरा महोबा से आई हुई एक गजरा बनाने वाली ने बनाया है। राजकुमारी ने मालिन से कहा कि मुझे गजरा बनाने वाली से मिलना है। मालिन उदल को महिलाओं के भेष में राजकुमारी के पास ले गई। जब वह राजकुमारी के पास पहुंचे तब ऊदल ने राजकुमारी को अपना असली स्वरूप दिखाया। राजकुमारी उदल के सौंदर्य को देखकर मुग्ध हो गई तथा राजकुमारी ने उदल को अपने महल के तलघर (तहख़ाने) में छुपा लिया तथा कई महीनों तक उदल राजकुमारी के महल में ही छुपे रहे। तभी हर बार की तरह ही फिर एक बार राजकुमारी को फूलों से तोला गया तो उनकी तुला समतल नहीं हुई। जिससे राजा मकरंदी समझ गए कि राजकुमारी का किसी पुरुष के साथ स्पर्श हुआ है तथा इनका सतीत्व भंग हो चुका है। तुरंत राजा ने महल के सैनिकों को आदेश दिया कि राजकुमारी के महल की तलाशी करवाई जाये। जब महल की तलाशी की गई तो राजकुमारी के महल के तलघर में सैनिकों ने उदल को सोता हुआ पाया। राजा ने उदल को तुरंत गिरफ्तार करवा कर हवापौर के ऊपर एक भक्छी बनी हुई थी उसमें ऊदल को कैद कर दिया गया। तब से वह भक्छी "उदल भक्छी" कहलायी।
अब उदल 6 माह तक अपने भाई आल्हा के पास नहीं पहुंचे तब आल्हा ने उनकी खोजबीन शुरू की जिससे आल्हा को ज्ञात हुआ कि उनके भाई को नरवर के राजा मकरंदी ने बंदी बना लिया है। तदोपरांत आल्हा अपने गुरु अमरा गुरु (जिनको शारदा देवी सिद्ध थीं) को नरवर लेकर नरवर आ गए। गुरु की आज्ञा पाकर आल्हा ने युद्ध का एलान किया और नरवर के सुरक्षा द्वार को तोड़ते हुए सैनिकों को मार कर नरवर के किले पर जा पहुंचे। जब नरवर के सभी वीर योद्धा आल्हा से परास्त हो गए तब घायल सैनिकों ने राजा को जाकर बताया कि उदल के भाई आल्हा नरवर किले पर आ चुके है। तब राजा मकरंदी आल्हा के पास घबराते हुए आया और अपना मुकुट उतार कर आल्हा के चरणों में रख दिया तथा क्षमा मांगने लगा। अमरा गुरु के आदेश से आल्हा ने राजा को छमा कर दिया। राजा ने उदल को तुरंत मुक्त किया तथा राजकुमारी का विवाह ऊदल से करा कर उनको विदा किया। इसकी विस्तृत कहानी इतिहास के पन्नों में अंकित है, तथा आल्हा ऊदल के बुंदेलखंडी लोकगीत (रसिया) में आज भी गाई जाती है। ऐसे ही जाने कितनी महावीरता के प्रमाण दर्ज़ हैं इतिहास के पन्नों में, बुंदेलखंड के लोगों के मन में।
ज्न रवर किले की कई प्रेम कहानियां इतिहास के पन्नों में अमर है जिसमें राजा नल-दमयंती, ढोला-मारू तथा फुलवा-उदल की प्रेम कहानी प्रमुख रूप से है।
आल्हा के अमर होने की मान्यताएँ :-
ऐसी मान्यता है कि मां के परम भक्त आल्हा को मां शारदा का आशीर्वाद प्राप्त था, इसी के कारण ही पृथ्वीराज चौहान की सेना को पीछे हटना पड़ा था। मां के आदेशानुसार आल्हा ने अपनी साग (हथियार) शारदा मंदिर पर चढ़ाकर नोक टेढ़ी कर दी थी जिसे आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया है। मंदिर परिसर में ही तमाम ऐतिहासिक महत्व के अवशेष अभी भी आल्हा व पृथ्वीराज चौहान की जंग की गवाही देते हैं।
एक मान्यता ये भी है कि सबसे पहले आल्हा करते हैं माता की आरती एवं पूजा :-
मान्यता है कि मां ने आल्हा को उनकी भक्ति और वीरता से प्रसन्न होकर अमर होने का वरदान दिया था। लोगों की मानेंं तो आज भी रात 8 बजे मंदिर की आरती के बाद साफ-सफाई होती है और फिर मंदिर के सभी कपाट बंद कर दिए जाते हैं। इसके बावजूद जब सुबह मंदिर को पुन: खोला जाता है तो मंदिर में मां की आरती और पूजा किए जाने के सबूत मिलते हैं। आज भी यही मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन हर दिन सबसे पहले आल्हा और ऊदल ही करते हैं।