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शनिवार, 26 अगस्त 2017

शख़्सियत भाग 1 (शिल्पी चौधरी )

आइये आज  के दिन आपको मिलवाते है एक ऐसी शख्सियत से जो अपने जीवन के साथ परिवार के दायित्व को निभाते हुए....समाज के लिए, महिलाओ के लिए, गरीबो के लिए, जानवरों के लिए, बेसहारों के लिए, कैदियों के लिए, पीड़ितों के लिए अपनी जिंदगी को एक #आसरा_फाउंडेशन के रूप में संघर्षरत है।
ये महिला जिन्हें हम सब दीदी कह कर पुकारते है वो #शिल्पी_चौधरी के नाम से भी ख्याति प्राप्ति की है।
     .......आइये देखते है कि
इनकी सोच क्या है..?
कैसे काम करने का तरीका है..?
क्या भविष्य में चाहती है.....?
    तो मेरी उनसे बात हुई और मैंने इस बारे में जानने की कोशिश की उन्होंने बताया कि जब तक अशिक्षा, गरीबी, असमानता, अव्यवस्था बनी रहेगी तब तलक ये शोषित वर्ग पे अराजकता ही राज करेगी। इसके लिए हम सभी को अपनी ओर से जो सके उत्थान के लिए करना ही चाहिए।
रही बात काम करने के तरीके की तो किसी को अच्छा लगे या बुरा लगे कोई फर्क नही पड़ता जो सही है वो बोल देना चाहिए, मैं बोल देती हूं,,,, कोई एक रास्ता ही न चुना जाना चाहिए समाजसेवा का जो भी दिक्कत आपको नजर आए उस पर काम करना शुरू, कैदियों के सुधार के लिए, किसी की दवा करवानी हो, किसी बलत्कृत बिटिया के न्याय के लिए कोर्ट जाना हो, या किसी असहाय के लिये प्रशासन से लड़कर हक दिलाना हो......गाय, कुत्ता, बिल्ली, बंदर, कोई भी जानवर या इंसान हो बस उनके जीवन के लिए अपने अंदर मानवता जागृत रखना ही चाहिए और वो मैं करती हूं। ऐसा उनका कहना है।
    .......भविष्य का कोई  खास सोचा नहीं गया है बस ऐसे ही चलते जाएंगे और जितना हो सकेगा जहां से हो सकेगा जिस प्रकार हो सकेगा करते जाएंगे हां यदि कोई अच्छा मौका मिलता है कि मैं समाज की बेहतरी के लिए और भी कुछ कर सकूं तो मैं अवश्य ही उन सभी चीज के बारे में सोचूंगी फिलहाल राजनैतिक मूड तो नहीं है फिर भी सामाजिक कार्यों में जिस प्रकार की बाधाएं आती हैं उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि हां मुझे कुछ और ताकत की आवश्यकता है।
...... उक्त सारी बातें हमने शिल्पी दीदी को सोशल मीडिया पर एब्जार्ब करके और उनसे बातचीत के बीच का कुछ अंश है। यदि कुछ छूट रहा है तो आप जोड़ सकते है।

      ― अश्विनी यादव की कलम से

बुधवार, 23 अगस्त 2017

बिटिया

#बिटिया  #समाज  #सरकार और #हम
मैं अश्विनी, हमारे भारत की बुनियादी ढांचे को दर्शाने की कोशिश कर रहा हूँ....
........आइये रूबरू होते है भारत देश से जो कि पुरूष प्रधान देश है  जहां #यत्र_नारयेस्तु_पूज्यन्ते_रमन्ते_तत्र_देवता की गाथा गायी जाती है लेकिन हकीकत में हर वक्त महिलाओं को कुचला ही जाता है। क्यूंकि ये पुरूष खुद के अस्तित्व पर विश्वास नही कर पा रहा है सदियों से।
अब बात करते है महिला उत्पत्ति की........
        सबसे पहले तो कोई नही चाहता कि उसके घर बेटी जन्मे इसके लिए वो टोटके से लेकर डॉक्टर तक के  दरवाजे पर दस्तक देते है, इसके बाद जाँच पड़ताल करवाने के बाद यदि 'बेटी' की संभावना रहती है तो उसे गिराने के लिए हर सम्भव प्रयास किया जाता है फिर भी किसी कारणवश यदि कोई बात नहीं बन पाती है तो पैदा होने के बाद उसे कूड़ेदान, गटर, नाली, कीचड़, तालाब, झाड़ियों, खेतों, में फेंक देते है........ अगले सुबह कुछ कुत्तों द्वारा वो नन्ही जीव चीथी जाती हुई लाश के रूप में आधी अधूरी मिलती है।
फिर भी इन सबसे गर किसी तरह से बच गयी तो घर मे एक ग्रहण की तरह सबके निगाहों में चढ़ी हुई पाली जाती है, गिरते सम्हलते थोड़ा बहुत पढ़ने को जाती हैं यदि भाग्य ठीक रहा तो, कुछ दिन बाद वो भी बंद। इसके बावजूद किसी रिश्तेदार, पड़ोसी आदि से बलात्कृत होने से बच गयी तो जरा सा बड़ी होने पर दबंगो द्वारा खेतों में घसीट ली जाई जाती है, मनचलों द्वारा छेड़ी जाती है गर विरोध करती है तो मार दी जाती हैं, हाथ पैर काट डाला जाता है, तेजाब से नहला दिया जाता है,........ इतने के बाद भी बच गयी अगर तो कम उम्र में शादी कर दी जाती है, वहां ससुराल में पे जाने के लिए उसे पैसो से तोला जाता है... कई बार दहेज प्रथा को जीवंत रखने के लिए आग के हवाले करने में भी सास, ससुर और पति कोई कोताही नहीं बरतते है।
मान लो ये सब से निकल गयी वो तो जिंदगी भर जूती बनकर जीने को ही अपनी किस्मत समझकर वो मजबूर रहती है।
      .......इस संसार मे न जाने क्यों पौरुष का प्रमाण देने के लिए महिला को पताडित करके ही दर्शाया जाता रहा है। आवेश में आकर पुरूष मारेगा, बलत्कृत करेगा, कभी अकेले कभी सामूहिक और इतने जुल्म होने के बाद वो महिला या बिटिया ही अपवित्र हो जाती है जबकि उसके साथ ये घिनौनी हरकत करने वाले लोग पाक साफ बने समाजिक प्रतिष्ठा के अधिकारी होते हुए जिंदगी को जीते है।
    .....इन सभी ग्रन्थों से लेकर हर जगह पर नारी को संसार सृजन कर्ता कहा गया है लेकिन हकीकत में पैदा होने के पहले से आखिरी सांस तक मतलब हर वक्त
वो डरी, सहमी, कुचली, अपमानित की हुई मिलती है। यदि यही पुरुषत्व के पौरुष की निशानी है तो मैं अश्विनी, थूकता हूँ इस दोगले समाज पर।

शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

तो लिखना छोड़ दूंगा मैं

लिखना छोड़ दूंगा मैं,
मेरे लिखने से इंकलाब
न ही बदलाव कोई होगा
अपनो से रंजिश होगी
मतभेद मनभेद होगा
तब क्या करूँगा मैं,
सो लिखना छोड़ दूंगा मैं,।।

समाज की गफलत में
और विचारों के बहाव में
कुछ जिद्दी स्वभाव है
कई चीजों का अभाव है
सरकार के राजतन्त्र को
तिलांजलि लोकतंत्र को
देकर मुंह मोड़ लूंगा मैं,
तो लिखना छोड़ दूंगा मैं।।

ये जो पंक्तियाँ है मेरी
सब मूक बधिर रहेंगी
किसी ज़ुल्म जबदस्ती पे
ये कलम न चलेगी
इस तरह अपने यारों से
नाता जोड़ लूंगा मैं,
कलम सो रही मेरी अब
सो लिखना छोड़ दूंगा मैं।।

..... अश्विनी यादव​​
[मुझे लगता है कि मेरे राजनीतिक दलों पर, समाज की कुरीतियों, मज़हबी धर्मान्धों पर लिखने से कई खास मित्रगण लोग दुःखी से प्रतीत होते है,,, वो मतभेद नही बल्कि मनभेद कर बैठते है। सो अब लगता है कि देश गर्त में जाये या समाज डूब मरे जैसे कि अभी मर रहा है क्या फर्क है,,,, अपने को कुछ नही होना चाहिए बस।
हां देखो गर इस जुल्मी शासन में तुम मर जाओगे तो मैं दुःख जाहिर नही कर पाऊंगा,,,,लेकिन यदि मैं मर गया तो मेरे लिए एक पोस्ट कर देना, और ये जरूर लिख देना....
"वो टूटा नही था पर अपनो की चाहत में,
जमीरे-कलम पर लिबास डाल सो गया,,
        ―  अश्विनी यादव

रविवार, 13 अगस्त 2017

आजादी सत्तर साल की

मैं भी चाहता हूं कि बोलूं मेरा भारत महान है,
हर दिल, हर कण में बसता पूरा हिंदुस्तान है,
हर एक चेहरे पे  कायम प्यारी सी मुस्कान है,
मैं भी चाहता हूं कि बोलूं मेरा भारत महान है,

लेकिन जात पात में बंटा हुआ देख रहा हूँ मैं,
एक दूजे के लहू के प्यासों को देख रहा हूँ मैं,
छोटी सी अफवाहों पे  हत्याएं देख रहा हूँ मैं,
दुःख होता है मजहब से लुटता देख रहा हूँ मै,

टैंक हमारे पास नए हर साल ले आये जाते है,
फिर क्यूं सरहद पे रोज कई शहीद हो जाते है,
सपने खूब दिखा कर सब सत्ता में आ जाते है,
वहीं देश है जहां रोज लाखों भूखे सो जाते है,

सत्तर बरस आज़ादी के उल्लास मनाये जाएंगे,
शहीदों के परिजन फिर उपेक्षित रक्खे जाएंगे,
यूँ दलाली वास्ते मासूमों की स्वांस रोके जाएंगे,
और दम्भ भर रहे है हम विश्व गुरु बन जाएंगे,

फिर पूंछ रहा हूँ क्या  गाय देश मे समान नही,
कहीं कटे बीफ़ बने,  कहीं कटे तो इंसान नही,
सत्ताधीश बतलाओ क्या दलितों में प्राण नही,
या अब्दुल हमीद में बसा हुआ हिंदुस्तान नही,

अब केवल एक विनती है पहले सा हो जाने दो,
मुस्लिम हिंदू ईसाई  को एक थाल में खाने दो,
गाय-गंगा-राम सभी को हृदय में बस जाने दो,
मिसाले-एकता मुल्क ये हिंदुस्तान बन जाने दो,

आजादी के सत्तर साल के वर्षगांठ पर देश के सभी बन्धुओ को ये सौहार्द का संदेश।

           ― अश्विनी यादव

कहते है तुम मेरे हो

यह एहसास ही कितना प्यारा है,
जब सब कहते हैं तुम मेरे हो।
उनसे पूछो कि क्यों कहते हैं,
हम तेरे हैं, तुम मेरे हो,
बेशक यह सच नहीं है फिर भी,
सब के सब तो झूठे होंगे नहीं,
कोई साजिश कर हमें बदनाम करें,
इतने याद भी रुठे होंगे नहीं,
भूले से भी कभी न नाम लिया,
ना ही गजलों में गया है,
तुम खामोश रहे न वाह किया,
ना ही आह लबों पर आया है,
बेचैन बहुत हूं क्या बोलूं,
आखिर सब को कैसे खबर हुई,
वो बुत बनकर हैं आज मिले,
जिनसे ये यह बात न सबर हुई,

        ― अश्विनी यादव

बुधवार, 2 अगस्त 2017

सब तुम्हारी कारस्तानी है

आखिर बात क्या है जरा बता दो न तुम,
नई बाग लगी है शहर में या आये हो तुम,
आखिर बात क्या.......

इतनी जमालियत हमने पहले देखी नहीं,
चांद पूरा है की चांदी में नहा आये हो तुम,
आखिर बात क्या.......

कोई पता तो करो ये शज़र ठहरा है क्यूं,
यकीं है महफ़िल में मुस्कुरा आये हो तुम,
आखिर बात क्या.......

जिस डगर पे गया करीब-ए-मर ही दिखे,
उस शहर में बेपर्दा घूम कर आये हो तुम,
आखिर बात क्या......

पुजारी मन्दिर नहीं मियां मस्ज़िद न गया,
जब से उनके हाल पूंछ कर आये हो तुम,
आखिर बात क्या......

            ― अश्विनी यादव