ऐ तख़्तनशीं लोगों तुमने
ये कैसा मुल्क़ बना डाला
हर हिस्से में है जख़्म बहुत
हर शक़्ल पे मातम छाया है
कतरा कतरा खूँ बहता है
रेज़ा-रेज़ा सब मरते हैं
हर लम्हा इक डर रहता है
कोई साया जाने कहाँ से
आ धमके फिर खा ही जाए
हम डरते हैं सब डरते हैं
सबका डरना लाज़िम भी है
इन कमरों में चीख़ रही है
सच कहने वाली ख़ामोशी
सच सुन ने वाली इक आदत
सच लिखने वाले कुछ पागल
हैं ज़ब्त कहीं पर लोग यहाँ
कोई ख़ोजे आख़िर इनको
हाँ! इन लोगों में हिम्मत है
तोपों के आगे रख देंगें
कुछ गीत, कहानी, नज़्म, कलम
कुछ दीवारें पोती जायेंगीं
कुछ वादे लिक्खे जाएंगें
वो दहशत तोड़ी जाएगी
कुछ पुतले फूँके जाएँगें
ढपली पे राग बनेगी फिर
तब एक मशाल जलेगी फिर
जंजीरें, तलवारें, तोपें
ये सब गायब हो जायेंगीं
हम फिर से तब मुस्काएंगें
हम फिर से सच कह पायेंगें..
~ अश्विनी यादव
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