नज़्म
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उसे तुम कहूँ
या आप से शुरुआत करूँ
पता नही क्या अच्छा लगे
मैं कल से बस
फ़िक्र में हूँ
उसके कानों से लटकती बाली
जिसको उसकी आंवारा ज़ुल्फ़ें
बार बार चूम रही थीं
वो कल से मुझे
बेतहाशा याद आ रही हैं
गर्दन की ढाल से पहले तक
आँख से लेकर कान तक
हर तरफ ज़ुल्फ़ों का ही
पहरा है
जो मेरी नज़रों को
रोकती हैं उसे
चूम लेने से....…
फिर भी मैं
महसूस करता हूँ
चूम लेता हूँ......
वो जो इक तिल है न
उसी से मज़बूर हूँ
कि देखता रहूँ
अपनी आँख जाने तक
तुम से दूर जाने तक
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अश्विनी यादव
हमें प्रयास करते रहना चाहिए ज्ञान और प्रेम बाँटने का, जिससे एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा सके।
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सोमवार, 27 मई 2019
नज़्म (कानों से लटकती बाली )
शनिवार, 25 मई 2019
ज़िन्दगी
सुनो अजय तुम्हारा साथ बहुत अच्छा है, तुम सबका ख़याल रखने में अपना ख़याल रखना भूल जाते हो. लेकिन ये बार बार चाय पीने वाली आदत तुम्हें छोड़नी पड़ेगी। अभी डॉक्टर ने तुम्हें मना किया था न और मीठा भी कम दो वरना शुगर की शिकायत हो जाएगी.... मेरे लॉकर में कुछ गहने हैं उनको याद से ले लेना, पॉलिसी के कुछ कागज भी हैं....
मेरे कपड़े और मेरी फ़ोटो न हटाना कमरे से न ही मेरी डायरी..... मैं उन्हीं में ज़िन्दा रहूँगी।
हाँ मेरे जाने के बाद
अपने फ़ेवरेट कलर ब्लू से कमरे को कलर करवा लेना, चादर भी पर्दे भी सब उसी कलर का ले लेना,,,
और अगर कोई मुझसे ज़ियादह अच्छी मिले तो शादी ज़रूर कर लेना उससे ढ़ेर सारा प्यार भी करना पर मुझे अपने दिल के कोने में कहीं न कहीं बचा के ज़रूर रखना.....कहते कहते अनन्या और अजय दोनों फ़फ़क के रो पड़े....।
डॉक्टर ने फाइनली रिपोर्ट भी दे दी हाथ में 'कैंसर लास्ट स्टेज़' था अनन्या को।
अथाह मुहब्बत के बावजूद अजय सिर्फ़ बेबस, लाचार, आँखों मे आँसुओं सागर लिए खड़ा अजय भी शायद करोडों लोंगों के शहर में ख़ुद को अकेला महसूस कर रहा था..... और दिल से एक आवाज़ आ रही थी कि ''यहाँ अब और बचा क्या है,, ये शरीर है बस इसमें से ज़िन्दगी तो कहीं दूर कहीं बहुत दूर जा रही है.....
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अश्विनी यादव
शुक्रवार, 10 मई 2019
'वो लड़की'
न समझ थी
न ही ताक़त थी
न ही शरीर का कोई अंग विकसित था
वो बस चौदह बरस की थी
फ़िर भी उसे
सहना पड़ा ये
पहाड़ बराबर दुःख
ये वो पीड़ा थी
जिसकी बराबरी
सौ बिच्छुओं का डंक,
हर इक हड्डी टूट जाने
नही कर सकता
और सच कहूँ तो कोई अनुमान नही
इतना दर्द उफ़्फ़!
लेकिन फ़िर भी
आदेश था कोर्ट का
जनना था उस बच्चे को
जो पैदा होने से पहले ही
ज़िन्दा लाश बना दिया था
ये अनचाही चीज़
उसे मिली कैसे कोई बतायेगा ?
ये भी इक बच्ची थी
अभी खेल कूद रही थी
इसके बस्तों की किताब भी
अगले कक्षा का
और इसका जन्मदिन अगले बरस का
दोनों इंतज़ार में थे
इक दिन कुछ दरिंदों ने
इस फूल को नोच डाला
इतना नोंचा जितनी ताक़त थी उनमें
पहले तो बात दबी
लेकिन ये बात नही आग थी
जिसने उन जिस्मों को जला दिया
जो छुपाना चाहते थे
फिर भी इस आग को
थाने के तूफ़ान से बढ़कर
कचहरी के बारिश को पार करना था
आज़ बहुत देर हो गयी
मीलार्ड की आँख खुलने में
क्योंकि इन केस के पन्नों में पंख लगे है
पैसों के, तारीखों के,
पेट का आकार बढ़ गया है
जान के अंदर भी इक जान आ गयी है
और कहा गया देर हो गयी है
इसे जनना होगा
वो लगभग मर ही गयी होगी
उस ''अनचाहे'' को जनने में
बच्चा अनाथाश्रम का हुआ
और इस अधमरी को दस लाख का चेक,
ये रुपया इसको आगे के लिए था
या ज़िन्दगी गंवाने का था
या फ़िर बलात्कार सहने
बच्चे पैदा करने का ईनाम था
पर अभी समझ न आया कि
देर हुई कहाँ थी
क्यूँ सहना पड़ा ?
सज़ा में देरी क्यूँ?
सज़ा किसको मिली आख़िर….?
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अश्विनी यादव
ashwini yadav poetry