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गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

भोर हो गयी कैसे मान लूँ

भोर हो गयी कैसे मान लूँ,
अभी तक न तुम
बाथरूम में गुनगुनाई हो,
न ही गीले बाल
झटकते हुए आयी हो,
न ही ठंडी चाय पर
तुम जोंरों से चिल्लाई हो,
न रजाई खेंचकर तुम
अपना मुखड़ा दिखाई हो,

भोर हो गयी कैसे मान लूँ,
अभी तक न तुम
आईने से मुलाकात की हो,
न ही घर की चीजों से
अकेले में कोई बात की हो,
न पेपर फेंककर तुम
घर के हालात सुनाई हो,
न ही तुलसी पौधे पर
लोटे से सौगात चढ़ाई हो,

भोर हो गयी कैसे मान लूँ,
अभी तक न तुम
तुम्हारी बिंदी से मिल पायी हो,
न ही सिंदूरदान को
खाली सी मांग दिखाई हो,
न झील सी आंखों को
काजल का पहरा दिलाई हो,
न ही मोगरा फूल का
तुम गजरा आज लगाई हो,

भोर हो गयी कैसे मान लूँ,
अभी तक न तुम
अच्छा छोड़ो मैं मान लेता हूं
की भोर हो गयी,
तुम नहाते नहाते गुनगुना भी ली,
बाल झटक दिए, पेपर फेंक दिया,
चाय दे दिया, चिल्ला भी लिया,
तुम सज संवर भी ली,
किचन से भी मिल ली,
अगरबत्ती की महक भी आ गयी,
तुलसी में जल भी दे दिया,
पर अब भी कुछ अधूरा है,
तुमने बात तो सपनो में कर ली,
पर अपनी सूरत कहाँ दिखाई हो,
काश की तुम सामने होती
और वो हरकतें करती तुम
जैसा पहले करती आयी हो,
तब मान लेता भोर हो गयी
तुम आकर मुझको जगाई हो,

भोर हो गया कैसे मान लूँ.....

     ― अश्विनी यादव

रविवार, 17 दिसंबर 2017

विस्मृता ( Vismrita )

मेरी चाय जब भी मेज पर आती है, तो मैं उस कॉफ़ी को याद करता हूँ एक जोड़े कप में आई थी..... पिज्जा का वो एक टुकड़ा जो साथ खाया था....मुझे उसका स्वाद न याद है न उस वक्त समझ मे आया था। क्युंकि सामने एक खूबसूरत चेहरा और उसकी आंखें....जिसे मैं बातों बातों में देख ले रहा था....काहे की सामने से देख पाऊँ, इतनी हिम्मत नही हो रही थी....।।
ये जो भी समय था कुछ धुंधला हुआ सा अभी तक है मेरे जेहन में,,,,शायद यहीं है 'विस्मृता'....
तुम आज भुलाई जा चुकी हो ये दिलाशा लगतार मैं दिलाते हुए फिर अपनी चाय की चुस्कियों पर आ टिका हूँ। हाँ मुझे अब कॉफ़ी का स्वाद अजीब लगता है....।।
कैफेटेरिया के उस सीट से प्यार कहूँ या नफ़रत पर एक दो दिन में एकाध बार उस पर बैठ ही जाता हूँ। तुम दिखती भी हो तो ये पक्का नही कर पाता हूँ कि देखूँ या न देखूँ....और देखता भी नही हूँ...पर मैं खुद भी नही जानता कि कब में उसका चेहरा मेरे आंखों से होता हूँ...दिमाग तक चला जाता है पता नही।
इस विस्मृता से मैं जल्द ही रूबरू करवाऊँगा आप सभी को....

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

काश की तुम मिलने आती

कोहरे की पहरेदारी थी
काश की तुम मिलने आती,

सर्द रातों की दुश्वारी थी
काश की तुम समझ पाती,

भेज ही देती किसी तरह
यादों का गर्म बिछौना तुम,

प्रेम पाश के कम्बल को
ओढ़ा दी होती मुझपर तुम,

दिन चमकना भूल गया है
क्या इसकी भी साझेदारी थी,

काश की तुम मिलने आती
फिर कोहरे की पहरेदारी थी,

शिकायत भी न है कोई
गिला न हमसे रखना तुम,

हवाओ से कहा अकेले में
वो मुझसे कभी कहना तुम,

इन सड़कों पे दीद मेरी ये
ढूंढ रहीं हैं इक पहचाने को,

वो रस्ते बदल रहा देखो
अरे मिले न मुझ दीवाने को,

कतरा कतरा रात कटी
फ़ना होने की जिम्मेवारी थी,

कोहरे की पहरेदारी थी
काश की तुम मिलने आती,

( पंक्तियाँ :― अश्विनी यादव )