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मंगलवार, 28 सितंबर 2021

और अलविदा कह न सका


 उससे बिछड़ते वक़्त मुझे ऐसा लगा कि कम से कम अलविदा तो बोल दूँ पर मेरे कंपकँपाते होंठो ने मेरा साथ न दिया.... मैं बस चुप बिल्कुल चुप मानो किसी बुत की तरह बस देखता रह गया।


उस लम्हे के साथ साथ हमेशा ही मुझे वसीम बरेलवी का एक शे'र याद आता है...


वो मेरे सामने ही गया और मैं

रास्ते की तरह देखता रह गया 


      किसी को भी ज़िन्दगी में इस ग़म की अमानत अगर मिली हो तो यक़ीन मानो वो बहुत सारे ग़मों को अपने अंदर समेटे हुए मुस्कुराते हुए जी सकता है। सच कहूँ तो ऐसे वेशकीमती ख़ज़ाने का भरपूर लुत्फ़ लेना चाहिए,,,, इस नश्तर से दुःख को पिरोने का हुनर आपको मिल जाये बस समझिये कि बर्बादी की खाक़ से एक और नायाब शायर पैदा हो जाएगा।


दुआ है दर्द को पिरोने का हुनर मिले सबको🙏❤️


     ~ अश्विनी यादव


( लिखी जा रही नॉवल में से इक छोटा सा हिस्सा )


मंगलवार, 7 सितंबर 2021

ग़ज़ल ( अल्लमा इक़बाल को समर्पित )

आदम के खूँ का प्यासा ये कारवाँ हमारा
है नफ़रतों में डूबा सारा जहाँ हमारा

मर्ज़ी का हैं वो मालिक सुनता नहीं किसी की
सौदागरी में खोया है निगहबाँ हमारा

सर फोडकर हमारा कहता है देंगे चारा
क़ातिल ही अब बना है फिर पासबाँ हमारा

गंगा हो या कि यमुना रोती है दर्द अपना
बाक़ी कहाँ बचा है विरसे निशाँ हमारा

बस आपने दिल ही दिल में रोते हैं आज हम सब
मालूम क्या किसी को दर्द- ए -निहाँ हमारा

अहले वतन के लोगो करियेगा शुक्र उनका
जिनके लहू ने सींचा है सायबाँ हमारा

वो हैं मिटाने को अब जो नक्श थे ख़ुशी के
आओ बचाने ख़ातिर ये कहकशाँ हमारा

अहले-वतन के लोगों है जश्न भी ज़रूरी
लाखों की क़ब्र से बना ये गुलसिताँ हमारा

     ~ अश्विनी यादव

[ अल्लमा इक़बाल को सादर समर्पित ]