धूल में खेलकर घर आना
फिर छिपते-छिपाते अंदर जाना
माँ के प्यार की थपकी मार
सब अक्सर याद आया करता है
चंचल चितवन मन हो जाता
जब 'बचपन' याद आया करता है।
साईकिल के पुराने टायर ले
चल पडे हम सैर सपाटे पे
नजर ज्यों ही सबकी पडे हमपे
पहिया छिन जाता था हाथों से ,
इस खेल के चक्कर में मै
अक्सर पीटा जाया करता था
आखें नम हो जाती है मेरी
जब बचपन याद करता है, ।
करें बहाना बगिया जायें
बगिया से फिर नदिया जायें
सब लँगोटिया यारो के संग
धमाचौकड़ी खूब मचायें,
वो सौंधी सी मिट्टी की महक
जिसमे पूरा दिन बीता करता था
अमिट छाप देता जीवन को
जो आँखे छलकाया करता है
लगे कि कल का दिन था वो
जब बचपन याद आया करता है।
टप-टप की आवाज जो आई
तब फटे किताबों के पन्ने
घर से बाहर भागे भीगने
और अपनी नाँव तैराने को
नन्हें हाथों ने थाम्हे छन्ने
आँगन में मछली पकड़ने को,
चहचहाता खेलता कूदता
बेफिकर सा वो शरारतपन
काश! कि लौट सकता फिर
वो प्यारा जीवन मेरा "बचपन"।।
कवि :- अश्विनी यादव
आज बाल दिवस के शुभावसर पर समस्त पाठकों को हार्दिक शुभकामनाएं।
हमें प्रयास करते रहना चाहिए ज्ञान और प्रेम बाँटने का, जिससे एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा सके।
कुल पेज दृश्य
मंगलवार, 31 मई 2016
अनमोल बचपन
गुरुवार, 26 मई 2016
तेरी-मेरी कहानी
नाम तेरा हम लिखते मिटाते रहे
तुझे झरोखों से देख मुस्कुराते रहे
चर्चा कालेज में थी हूँ मै आशिक तेरा
वो भाभी है तेरी हम समझाते रहे
एक तेरे चक्कर में कितने लफड़े हुए
अपने हमयार भी नजरे चुराने लगे
बस तुझे छोड़ सबको थी ये खबर
क्यूँ तेरे नाम पे लुटने-लुटाने लगे
यूँ दिलकशी में पढाई चौपट हो रही
ध्यान तेरे सिवा और कुछ भी न था
कह न पाया कभी तुमसे दिल की बात
और तुम हँसकर सबसे बतियाते रहे
मै आंवारा न होऊ सो शहर आ गया
पूरा शहर परियो की बगिया लगी
भूलने लगा तुम्हे तितलियों में रहकर
जिम्मेदारी पढाई की बढने लगी
बीच में जब भी घर आना हुआ
तुम हमे देखकर शरमाने लगे
एक साल न गुजरे तेरी शादी हो गई
आज अफसर हो हम भी कमाने लगे
फिर भी अफ़सोस है उस अधूरेपन का
जिसे ख़यालों में हम गुनगुनाते रहे
मेरे यारों को उनकी वो भाभी न मिली
जिन्हें हम "जान" कहके बुलाते रहे...
कवि- अश्विनी यादव