एक बूँद की चाहत में तरसता रहा
शायद अंत है निकट अब लग रहा
सूखा है गला न आखोँ से नीर बहे
फटे दर्रों में जल महसूस करता रहा
पेड़ कत्थहे हुए सबकी छाया भी गई
सारी फसलें कटीली झाड़ियाँ बनी
यहाँ पे कोई तो वहाँ पे कहीं
भूख से तड़पती लाशें दिख रही
बड़ा वीभत्स था मंजर देश का
आके अकाल सब बर्बाद करता रहा
मैने भरसक किया जो कर सकता था
हारकर तमाशा मै देखता रहा
कुदरत का कहर क्यूँ इतना निर्मम
हर जगह मौत तांडव करता रही
तरसता तड़पा रहा पूरा जहान
दिल न पसीजा जरा ऊपरवाले का
आसमां का भी दामन न भीगा कहीं
मै कयामत की गुजारिश करता रहा।।
©®―अश्विनी यादव
हमें प्रयास करते रहना चाहिए ज्ञान और प्रेम बाँटने का, जिससे एक सभ्य समाज का निर्माण किया जा सके।
कुल पेज दृश्य
शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016
ये कयामत क्यूँ
सोमवार, 11 अप्रैल 2016
एक हसीं सा ख्वाब है तू
सजाकर माथ पे बिन्दी
लगाकर आँख में काजल
रचाकर हाथ में मेंहदी
पहनकर पांव में पायल
सुर्ख़ होंठों की लाली से
कभी मुस्कान करती हो
तुम्ही में खो सा जाता हूँ
जब हँसकर बात करती हो
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चमकती नाक की नथुनी
खनकते ये हाँथ के कंगन
गाढ़ी सी चूनर धानी
कसी हुई कमर की कर्धन
मोती माला सजी गर्दन
बाली जुल्फों संग लटकती है
समां थम सा जाता है
जब हमारी ओर तकती हो...
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―अश्विनी यादव
'व्यथा' ― मेरी जिन्दगी की
सारी जिन्दगी की मेहनत, किसी अपने के लिए अथक परिश्रम किया गया हो और अचानक, से
सब बिखर जाये तो……वो पीड़ा वही समझ पायेगा जिस पर उस वक्त बीत रही होती है...,
इसका दर्द ताउम्र रहता है। और उस पर व्यथित मन से ....
व्यथा - मेरी जिन्दगी
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हवा न जाने कहाँ है
पत्ते भी हिल रहे नही
कहीं हमारे जीवन में
अनहोनी का अंदेशा तो नही
अभी तक मेरे बच्चों ने
उड़ना भी सीखा नही
इन नवजातों ने घरौंदों छोड़
नील गगन देखा भी नही
क्या होगा कैसे बीतेगी
सोच रही थी एक चिड़िया
खुदा सितम करेगा हमपे भी
ये हमने कभी सोच ही नही.....
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वन में चहचाहट बनी थी
कि घिर आये काले मेघा
तरु पूरा हिलने सा लगा
तभी आया तूफानी झोंका
टूट गयी वही टहनी
जिस पर था आशियाँ बना
सब नाजुक नाजुक पन्खो से
जीने की बगावत छेड़ दिये
पर उन सबकी न एक चली
बेदर्दी ने पन्ख भी तोड़ दिये
माँ चीत्कार कर रही थी
और पूछ रही उस जालिम से
जब एक घरौंदा तूने नही बनाया
तो क्यूँ हजारों घरौंदे तोड़ दिया...
-――o९/१२/२o१५――-
©®― लेखक/कवि- अश्विनी यादव
उसके हाँथ के कंगन
'उसके हाँथ के कंगन'
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बहुत ख़ामोश लगते है
अब उसके हाँथ के कंगन,
कभी दिनभर खनकते थे
वो उसके हाँथ के कंगन,
कोई बात है जरूर
जो बताया नही उसने,
पर वो है बड़ी गुमसुम
ये बयाँनात् है कंगन,
हलचल करके हरपल में
नये साज करते थे,
किसी आँगन में सजाते थे
रोज नग्मात ये कंगन,
आज आँगन बदल रहा
बदल गये उसके कंगन,
शायद अब बदल के राग
कहीं और छेड़े सरगम,
मनमाफ़िक ना साजन
वो बांधी गयी थी जबरन,
न संवरते है न खनकते है
अब उसके हाँथ के कंगन,
वो मिठास नही दिखता
उसके बात बोली में,
वो खुलापन है गायब
उसकी हँसी-ठिठोली में,
रंगत उड़ गयी रुख से
न हाँथ हरकत करते है,
चूड़ी बन गयी सौतन
अब कंगन नही खनकते है,
विदाई वख्त हल्के से
रोये थे उसके कंगन,
जन्मों तक ये बोझ कैसे
सम्हालेंगे उसके कंगन,
कभी बापू से लगके फूटे
माँ के अँचरे में जा सिमटे,
दूर से दिखा प्रियतम
तडपकर रह गये कंगन,
सिसकते से गैर के हाँथ में
सबने रख दिए कंगन,
सपने बह रहे आँखों से
जिनसे भीग रहा कंगन,
©®―कवि/लेखक -अश्विनी यादव
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