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सोमवार, 27 जनवरी 2020

ग़ज़ल

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जिस दिन कोई आगे बढ़कर आएगा,
तेरे मन में ख़ुद से ही डर आएगा,

तूने ये सब पहले से ही लिक्खा है,
जो आएगा लाश पे चढ़कर आएगा,

अंदर वाले अपने बाहर जाएगें,
बाहर वाला काफ़िर अंदर आएगा,

वो हँसकर सीने से लगाएगा पहले,
उसके बाद पुराना ख़ंजर आएगा,

आख़िर किसको जन्नत मिलने वाली है,
पहले इक वीराना मंजर आएगा,

सबसे पहले तुम अपना कागज लाओ,
उसके बाद हमारा नम्बर आएगा,

इक दिन संसद नाम तिरे हो जाएगा,
मेरे हिस्से जंतर -मंतर आएगा,
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  @अश्विनी यादव

गुरुवार, 23 जनवरी 2020

शे'र और फ़िक्र देखिए

बात आख़िर में कही अब कैसे  हो,
मैंने हँसकर कह दिया 'अब' ठीक हूँ,
_________________शे'र (1)

बात आख़िर में कही अब कैसे  हो,
मैंने हँसकर कह दिया 'हाँ' ठीक हूँ,
_________________शे'र (2)
यहाँ दो अशआर एक जैसे हैं केवल एक शब्द के बदल जाने भर से ही दोनों के मानी यानी कि (  सिचुएशन ) परिस्थिति बदल सी गयी है कहने की......दोनों के जवाब का लहजा और फिक्र दोनों ही बदल से गए हैं।

अब देखते हैं पहले शे'र को तो किसी ने पूरी बात करने के बाद मुझसे आख़िर में हाल पूछा तो जवाब में मैंने हँसकर कहा ''अब ठीक हूँ" इसका मतलब इक तुम्हारे पूछ लेने भर से या तुमसे बात करने के बाद काफी ठीक लग रहा है। एक फ्लर्ट या राहत वाली फिक्र है इसमें।

अब दूसरे शे'र को तो एकदम वैसे ही पूछा गया लेकिन इस बार मेरे जवाब का लहजा एकदम बदला सा है...कि उसने बाद दिखाने के लिए पूछा और मैंने भी बस जवाब देने भर के लिए हामी भर दी कि "हाँ ठीक हूँ,,। इसमें एक झुँझलाहट है, गुस्सा है, बेरुखी है, ऐसा लग रहा है मानो मुझे कोई फ़र्क़ ही नही पड़ता है उसके पूछने से या मेरे जवाब देने से......

सच कहूँ मुझे तो ऐसी बारीकी कभी अजीब लगती थीं लेकिन अब अच्छी लगती हैं। शायरी एकदम कमाल की चीज़ है एक एक शब्द से पूरे मिजाज़ बदले जा सकते हैं। मैं अब ऐसी बातों पर आगे ध्यान जरूर दूँगा।

मैं काफी देर तक इन्हीं दोनों शब्दों में उलझा रहा फिर मैंने अपने लिए पहला वाला शे'र चुना। जिसे पोस्टर पर जगह देना ठीक समझा।

आप मुझे ऐसी बारीकियों से ज़रूर रूबरू करवायें।जो आपके समझ मे हों अभी। मुझे पता चला है कि मीर तकी मीर इस तरह की शायरी के उस्ताद शायर में से एक हैं।
शुक्रिया।❤️
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अश्विनी यादव

सोमवार, 6 जनवरी 2020

ग़ज़ल

लाल लहू का खेल हुआ तो कुछ का मरना वाजिब है,
जान गई आज़ादी पर तो इतना मँहगा वाजिब है,

मुल्क़ गया तो जीना कैसा हाथों को आज़ाद करो,
उस ख़ूनी, जालिम का आख़िर हमसे डरना वाजिब है,

सच की ज्योत जलाने वाले पागल में से मैं भी हूँ,
तेरा, मेरा, इसका, उसका, सबका लड़ना वाजिब है,

ज़ुल्म के आगे पत्थर था चूर हुआ हूँ अच्छा है,
अपने 'अपनों' पर सारे ख़्वाब बिखरना वाजिब है,

बन्दूक उठाकर सत्ता पर काबिज तो हो सकते हो,
ऐसे तो सबकी नज़रों में तेरा गिरना वाजिब है,

ग़र सोच रहे हम पीछे हट जाने वाले कायर हैं,
इस सीने से गोली भी आज गुजरना वाजिब है,
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अश्विनी यादव