कुल पेज दृश्य

सोमवार, 8 जनवरी 2018

मेरी घड़ी, चौराहा और तुम


छोटी सुई को बार बार
लगातार करती रही पार
मेरी घड़ी की बड़ी सुई
और मैं एक बार घड़ी
एक बार उस रस्ते को
जिससे तुम आओगी,

चौराहे के वो किनारा
जो अक्सर पूछ लेता है
वो देर से आएगा तो
क्यूं पहले आ जाते हो
फिर मेरे पास मुस्कुराने
अपनी आंखें चमकाने
सिवाय और न होता,

चौराहे की बाकी सड़के
हंसती रहती थी
मैं उलझन में खुश होता
और घड़ी से पूंछता
तू और कितनी देर से
आज भी आएगी
घड़ी की सुई बढ़कर
कहती थी वो आ रही,

इत्ती गाड़ियों के शोर
बाजार की चहल पहल
फेरीवालों के बुलावों
के बीच मे भी
मैं साफ सुन लेता था
अपनी तेज हुई धड़कन
अपने घडी की टिकटिक
तुम्हारे बिना पायल के
कदमों की आहट
साफ़ सुन लेता था मैं,

वक़्त तब भी न था
आज भी नही है न
तुम्हारे पास फिर से
की चले आते मिलने
पहले जैसे देर से सही
पर आ तो जाते ही
बड़ी बेसबर सी
थोड़ी पथराई हुई
मेरी आँखें
जरा सा धीरे हुई
मेरी घड़ी
हर रोज सँवरता सा
ये जवां होता चौराहा
हां इंतजार में हैं
तुम आओगी फिर
देर से ही सही,
पल्लू खुद में खुश
सबसे मिलती हुई
पैदल चलती हुई
तुम आओगी
देर से ही सही.....!!

  ― अश्विनी यादव​​

कोई टिप्पणी नहीं: