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सोमवार, 20 अप्रैल 2020

ग़ज़ल

हँसते, रोते, सुनते, गाते ज़िन्दा ऐसे रहते हैं,
थे जिस मिट्टी के मीर-ओ-ग़ालिब हम उस मिट्टी के हैं,

सच कहने से ज़ियादः मुश्किल है ये ख़ुद पर सुनना
मुँह पर अच्छा रहने से ही रिश्ते अच्छे रहते हैं,

ना उम्मीदी कुफ़्र कहे हो लेकिन ऐ दुनिया वालों,
जिसके साथ नही है कोई फिर कैसी उम्मीदे हैं,

ग़ज़लें सुनने की आदत थी उससे मिलने से पहले,
और उसी के ग़म-ए-हिज्र में अब हम ग़ज़लें कहते हैं,

मेरे जैसा बनने की तुम ये जो चाहत रखते हो,
लेकिन इसकी भरपाई में सारे सुख जा सकते हैं,

  
     ~ अश्विनी यादव

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

नज़्म

कभी कभी यह लगता है 
मैं किसी नाव के जैसा हूँ
इस बेहद बड़े समंदर में 
है इक छोटा-सा वजूद मेरा
और वजूद भी है बस इतना
कि जिस टापू से गुज़रा हूँ
हर इक पर मेरा नाम हुआ

जब कुछ लहरों को पार किया
मुझको, मेरी पहचान मिली 
बहुत सारी नावों के बीच
इक साथी सी नाव मिली
मेरे किस्से फिर ख़ूब चले
लेकिन ये बस मुझे पता था

जब मैं उन लहरों में फँसा था
कितना डूबा कितना उबरा
कितनी बार मरा भी था
मगर सुनो! पागल लहरों
वो सब मेरा अंत नहीं
पर कभी कभी लगता है कि 
मैं मर जाता तो क्या होता।
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     अश्विनी यादव