हँसते, रोते, सुनते, गाते ज़िन्दा ऐसे रहते हैं,
थे जिस मिट्टी के मीर-ओ-ग़ालिब हम उस मिट्टी के हैं,
सच कहने से ज़ियादः मुश्किल है ये ख़ुद पर सुनना
मुँह पर अच्छा रहने से ही रिश्ते अच्छे रहते हैं,
ना उम्मीदी कुफ़्र कहे हो लेकिन ऐ दुनिया वालों,
जिसके साथ नही है कोई फिर कैसी उम्मीदे हैं,
ग़ज़लें सुनने की आदत थी उससे मिलने से पहले,
और उसी के ग़म-ए-हिज्र में अब हम ग़ज़लें कहते हैं,
मेरे जैसा बनने की तुम ये जो चाहत रखते हो,
लेकिन इसकी भरपाई में सारे सुख जा सकते हैं,
~ अश्विनी यादव