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शनिवार, 17 फ़रवरी 2018

फ़ूलन के ज़ख्म फ़ूलन का फ़ैसला

वो चीखी-चिल्लाई भी पर उठा ले गए।
भागी, कूदी, काटी भी पर उठा ले गए।।

साहब ने मनमर्जी की और सज़ा दे गए।
वो राम दुहाई अर्जी दी पर सज़ा दे गए।।

सो रहा राम हमारा सोया था कान्हा भी।
वो घसीटे कोठरी गए चुप था थाना भी।।

बारी-बारी लूट रहे थे रौबीली मूँछों वाले।
ख़ैरात जान टूट पड़े खानदान ऊंचे वाले।।

ब्लाउज़ के इतने टुकड़े  हुये क्या बोलूं।
साड़ी तन से जाने कब छूटी क्या बोलूं।।

पेटीकोट जा बनी साहब जी की पगड़ी।
वो डरते डरते निहत्थे ही सबसे झगड़ी।।

खुद को वीरों का खानदान बतलाने वाले।
नोंच-नोंच कर जिस्म से पेट भरने वाले ।।

गांव के जमींदारों का यूँ पौरुष जागा था।
बिना पट वक्ष-नितंब ले जिस्म भागा था।।

जननांगों का खूब प्रदर्शन ऐसे होता रहा।
बच्ची के बाप-भाइयों का लहू सोता रहा।।

ऊँचें घराने वाले जो यूँ छूने से कतराते थे।
गर आबरू मिले तो काट काटके खाते थे।।

मर्यादा सब चली गयी देश चुप रहा सारा।
ख़ाकी वाले खद्दर वाले का हाथ रहा सारा।।

बोलो कौन जायेगा भारत के न्यायालय में।
पंचों ने ही इज्ज़त लूटी गांव के पंचायत में।।

जीना दूभर करके सबने कालिख़ पोती है।
वो बाप भी गुनहगार है जिसकी वो बेटी है।।

मर जाते बचाने में तब भी तो अच्छा होता।
गर जिंदा रह गए थे बदले को सोचा होता।।

टीका लगा माथे पे जय भवानी गाया उसने।
एकनाली लोहे की आखिर में उठाया उसने।।

दामन के दागों का हिसाब लगाया फ़ूलन ने।
अपने हर  चोंटों पे मरहम लगाया फ़ूलन ने।।

जो जवानी जोश में थी गुरुर आसमां पे था।
ज़बरदस्ती का  हुनर जिनके खानदाँ में था।।

उन सबके छाती में पीतल उतारा फ़ूलन ने।
इनके जैसे बहुतों किया किनारा फ़ूलन ने।।

बागे-खुशहाली में ही  कटा था नीम करैला।
अपने ज़ख्म, आबरू तो हो अपना फ़ैसला।।

                © अश्विनी यादव